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जैनेन्द्र की कहानियाँ [छठा भाग] रास्ता हमारा अब सीधा न था। सड़क कहीं छूट गई थी। कोई दस मील चलने के बाद सड़क मिलेगी। ___ घर के कई लोग हमारे साथ-साथ कुछ दूर हमें विदा देने आये
और बताया कि एक मील तक सामने फैले हुए धान के खेतों को यों-और-यों पार करके वह जो बाग-सा दीखता है, उसके आगे अमुक गाँव आ जायगा; और वहाँ से फिर फलाँ गाँव की बटिया सीधी है ही, फेर नहीं है; और फिर पहाड़ी आयगी, उसके दाई
ओर की राह पर हम हो लें; फिर सामने वह गाँव है ही; फिर यह...और फिर वह, और आगे बस सड़क ही है। फिर सड़क तो सीधी ही है । और इस प्रकार ब्यौरेवार सूचनाएँ देकर हमारे चित्त का पूर्ण समाधान करके बड़े विनीत और कृतज्ञ भाव से उन्होंने विदा दी और कहा, “अच्छा, नमस्कार ।"
अंगुलि-संकेत, मौखिक वर्णन और हार्दिक सद्भावना की सहायता से हमारे मार्ग का नक्शा जो उन्होंने विशद स्पष्ट रूप से खींचकर हमें दे दिया था, वह, चलते-चलते हमने पाया, हमारे निकट वैसा सुगम नहीं रहा । उस दिन सड़क तक के दस मील के रास्ते को कम-से-कम बारह तो हमने बनाकर ही छोड़ा।
चल रहे हैं, और चल रहे हैं, और चल रहे हैं। सड़क भी है कि आज आकर नहीं देगी । हम पास जाते है, तो वह दूर जाती है । आठ बज गये, नौ बज गये, दस बज गये । सूरज सिर पर तपने लगा, देह थक गई, भूख लग आई, जी भी हारसा चला और सड़क का अता-न-पता!
राम का नाम लो कि आखिर सड़क आई ही। वहाँ आते ही हम एक चिनार के पेड़ की छाँह में तनिक दम लेने ठहर गये। और तीन मिनट बीती नहीं कि फिर चल पड़े।
ऊपर से गर्द, भीतर से पसीना, आँख के सामने कहीं न अन्त