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कश्मीर-प्रवास. के दो अनुभव वे सज्जन इस प्रकार के पुण्य की खोज में ही थे। उनके यहाँ आज वर्षगाँठ का उत्सव था, और अब इसीलिये बाहर निकले थे कि कुछ सत्पात्र अतिथियों को पायें और इस शुभ योग पर कृतार्थ हो सकें । उन्होंने धन्य भाग माना । हमने भी कम अहोभाग्य नहीं माना। साथ-साथ चल दिये। ___ वह प्रसन्न हुए, जब उन्होंने पाया कि ये बेढंगे साधु बीच-बीच में अँगरेज़ी के शब्द भी बोल जाते थे । वह सुशिक्षित परिवार था। घर पर हमारे पहुँचने के कुछ ही समय बाद कुटुम्ब के सब सदस्य हमारे आस-पास आगये। बच्चे, स्त्री-पुरुष, कन्याएँ-सब हमें अपने बीच में पाकर बेहद प्रसन्नता, प्रसन्नता कदाचित् उतनी न हो, जितना कुतूहल और विस्मय हो-ये कौन उठाईगीरे से हैं, जिन्हें यहाँ बैठा कर उनके बड़े, उनसे तरह-तरह की बातें कर रहे हैं । और वे भी उसी तरह की बातें कर सकते हैं ! और कैसा उन से आदर का बर्ताव किया जा रहा है इसलिये जरूर कोई बढ़िया बात ही है, और इसलिये उन्हें जरूर खुश ही होना चाहिये।
खाना खा-पीकर हमने देखा, कि हमें चलना चाहिये; किन्तु यह बात तो-उस घर वालों ने स्पष्ट जतला दिया-बिलकुल असम्भव ही है । और महिलाओं ने भी कहा कि ऐसा किसी प्रकार भी न हो सकेगा और हम लोग भी इस अपरिचित स्नेह और अनुग्रह से कोमल और कठिन आग्रह को तोड़ने की हठ अपने भीतर नहीं जगा सके । रात वहीं बितानी हुई। __रात वहाँ बिताने का मतलब अगले दिन पूरी पच्चीस मील की मंजिल था। छड़ी को कहीं अनन्तनाग हम लोग पकड़ सकेंगे।
और सामान से लदे हुए एक साँस पञ्चीस मील चलना कुछ बहुत सुखद कार्य न था। रात यही सोचते-सोचते नींद ली और बहुत सबेरे उठ बैठे।