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कश्मीर-प्रवास के दो अनुभव होने वाली राह, और माथे पर चिल-चिलाती धूप, बस, हमारा बुरा हाल था।
चलते-चलते कोई बस्ती मिली । वहाँ एक सद्गृहस्थ के घर से मट्ठा पाया और पीया। दूसरी जगह से एक-एक गोले का टुकड़ा
और गुड़ की एक-एक डली प्राप्त की। उसके ऊपर कुछ पानी पेट में पहुँचाया । और आगे बढ़े। __जो पेट में पहुँचा, वह कहाँ भस्म हो रहा, कुछ पता न चला ।
और पेट में से मानो लपटें निकल-निकलकर कुछ और भी सामग्री माँगने लगीं, जो पड़े और स्वाहा हो। अग्नि प्रज्वलित है, यज्ञ का समय जाने कब का निकल चुका है; पर हवन की सामग्री कहाँ है ? मानो कुण्ड की वह्नि की जिह्वाएँ निराश क्षोभ में लपकलपककर तांडव करके पूछ रही हैं सामग्री कहाँ है, कहाँ है ?...
-और हम चलते जा रहे हैं । क्या सोचते हैं हम ? कहाँ तक चलना है ? क्या इसका अन्त है ? क्या इसका अन्त नहीं है ? क्या यह क्षुधा अनन्त है, जैसे कि सामने सीधी जाती हुई राह अनन्त है ? ____ मैंने कहा, "अवंतिपुर में महन्तजी का वजरा हमें अवश्य मिल जायगा । कहा था-शनीचर को हम वहीं होंगे। तब हमें भोजन भी तैयार मिलेगा।" __ अम्बुलकर ने कहा, "हाँ, कहा तो था । हमारा इंतजाम भी जरूर करेंगे।"
इंतज़ाम से अम्बुलकर का तात्पर्य इंतजार से था।
महात्माजी हँसते हुए बोले, "क्यों नहीं । वह इंतजार कर रहे हैं, तभी तो हम चल रहे हैं । उस इंतजार की आशा को लेकर ही तो हम चल पा रहे हैं, क्यों ?"
किन्तु, हम क्या जानते थे और महात्माजी क्या जानते थे, कि महन्त नहीं, उससे कहीं बड़ी और अपूर्व वस्तु वहाँ अवंतिपुर