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जैनेन्द्र की कहानियाँ [ छठा भाग ]
कि भीतर से कोई प्रेरणा कह रही थी- 'घृणा ग़लत है, ग़लत है, वह विदेशी है, मैं स्वभावगत हूँ, मुझे उसकी जगह आने दो ।' तुम्हारी घृणा बल खाकर करुरणा में न बदल जाय, और वह करुणा फिर शुद्ध होते-होते प्रेम न हो जाय, इसी डर से तुमने उसे भगा दिया । क्योंकि उस प्रेम को झेलने की तुममें सामर्थ्य न थी । इसी अटूट, अगाध, अनपेक्ष प्रेम की सामर्थ्य के कारण ईसा ईसा थे, बुद्ध बुद्ध । क्षुद्र और विराट में अन्तर इसी सामर्थ्य की अपेक्षा से है। नहीं ? नहीं, तो उसके सामने स्वस्थ होकर नहीं टिक सके, उस भिखारिन को भगा कर ही चैन पा सके, इसका कारण और क्या हो सकता है ?"
प्रेमकृष्ण ने कहा, "और तुम उसे प्यार करते ? मैं भी देखता, तुम कैसे उसे प्यार करते हो !"
प्रमोद सहसा कुछ रुका । रुक कर कहा, “मैं ? मैं भी प्यार न करता मैं भी तुम सब जैसा हूँ, कोई अलग थोड़े ही हूँ । लेकिन सचाई को हमारे अवलम्ब की जरूरत क्या वह हमारे बिना भी है ।"
प्रेमकृष्ण ने उकसाते हुए कहा, " त्रुटि और सत्य की बात कहने से तो तुम्हारी बात प्रमाणित होती नहीं । यह बताओ कि हम सुन्दरता से निरपेक्ष होकर प्रेम कहाँ करते हैं। इसके उत्तर में यह कहने से काम नहीं चलेगा कि हम सब आदमी हैं, देवता नहीं ।"
प्रमोद हलका सा मुस्कुराया । उस मुस्कुराहट से, बात में विनोद की गुञ्जायश निकल आई, अवश्य; पर बात की गम्भीरता जैसे और बढ़ गई। पूछा, "अच्छा, तुम्हारी प्रेम-पात्री सुन्दर है ? कैसी सुन्दर है ?"
हम हँसे । प्रेमकृष्ण को अब जैसे अपने मनकी-सी धरती मिली । लगा, जैसे अब प्रमोद कुछ समझ की-सी बात पर श्री