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जैनेन्द्र की कहानियाँ [छठा भाग] बाबा ने बोया था, उनका नाम भी सरली था। ऐसा मज़बूत पेड़ कि आपने भी क्या देखा होगा। यह अनबन की बात न हो जाती,
और मेरा मन न डूब गया होता, तो यह पिरले में गिरता तो गिरता, पहले क्या गिरना और कैसा गिरना। और छाया वह, वह परले खेत की मेंड़ दीख रही है न, शाम को उसकी छाया उसके भी पार पहुँचती। ऊपर से ऐसा गोल गुबद की तरह छ। रहा था कि किसी ने हाथ से ही ऐसा बनाया हो। नीचे चलता बटोही सुस्ताने को बैठे. तोहरा हो जाय,और देखता रह जाय, और जी फिर उसका जाने को करे ही नहीं, ऐसी छाया होती थी। और यह जो यहाँ उगता कुछ नहीं है, सो यही वजह है । धरती का सारा रस खिंच कर उस पेड़ में चला जाता था, और चीज़ कुछ कैसे होती ? और तभी तो फल ऐसे मीठे होते थे कि वाह !..."
इस अपनी बहक में एका-एक उसने अनुभव किया, कि उसकी बात-चीत में अत्यंत उत्सुकता के साथ दिसचस्पी लेने का हमारे पास पर्याप्त कारण नहीं है । उसको शायद यह भी ध्यान आया कि उसने इससे पहिले हमसे उस पेड़ का परिचय नहीं कराया है, और इसलिए उसका आकस्मिक विशद बखान, सम्भव हो सकता है, हमारी प्रीति का कारण न बने । उसने कहा, "पेड़ को आप नहीं जानते ? कैसे जानेंगे ? आज की तेरहीं उसी की थी। यों तेरहीं में क्या रक्खा है; पर मन भी तो कोई चीज़ है। उसी के मारे मैंने आप को इतनी तकलीफ दी, और फिर यहाँ खींच लाया ।
आप जाएँगे? अच्छा चलिये । वक्त भी तंग हो रहा है । मैं भी कैसा बेवकूफ हूँ ! उधर से नहीं, इधर से आजाइये, सीधी सड़क मिल जायगी।" ___ और सीधी सड़क मिल गई, और सड़क मिलने पर भारी हृदय से हम लोगों ने एक दूसरे से विदा ली।"