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जैनेन की कहानियाँ [छठा भाग ]
और जब उन्होंने देखा कि इस गहन तात्विक तथ्य के प्रतिपादन से हमारे चित्त को समाधान जैसी कोई वस्तु नहीं प्राप्त होती, तब जोड़ा, "अच्छा, अब तो चले चलो। पीछे देखेंगे । देखने का काम अब तो पीछे ही हो सकता है । न हुआ, किसी से माँग- मूँगकर दे देंगे। तीन रुपये की ही तो बात है ।"
हम चले तो चले; पर शंका हमारी कहीं जाती न थी । हमारे यह अच्छी तरह समझ लेने पर भी स्थिति में कुछ विशेष सुधार न हुआ कि शंका को भीतर मजबूती से बैठा लेने से हाथ कुछ नहीं आता, केवल घोड़े की पीठ पर से लुढ़क पड़ने की सम्भावना में धिक्य होता है।
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ऊबड़-खाबड़, कहीं गड्ढा, कहीं तीन-तीन फीट उभरे हुए पत्थर, यहाँ कीचड़, वहाँ रपटन, इधर चीड़ के दरख्त की उठकर टेढ़ी-मेढ़ी जाती हुई फैली जड़ें, उधर और कुछ - लड़खड़ाते और सँभलते हुए हमारे घोड़े इन सबको पार करके आगे बढ़ते रहे और उन पर लदे हुए हम अदद भी आगे आते रहे । सामने हमारे हिमाच्छादित उत्तुंग शैल, इधर पाताल में पहुँचती हुई घाटी, उधर सीधा जाता हुआ पहाड़, सँकड़ी-से-सँकड़ी राह, और इस सब के बाद हमारे मनों पर छाई हुई विषम आशंका - इन सबकी उपस्थिति में हम गठरी बने हुए पदार्थ खेलनमर्ग और प्रभु की कृपा के निकट पहुँच रहे थे ।
चढ़ाई समाप्त कर हम मैदान में आये । छोटी-छोटी घास है । हरे धान के रंग की, जो यहाँ से वहाँ तक फैली है। उनके बीच में खूब अतिशयता से उग उठकर खिल-भूम रहे हैं, रंग-रंग के फूल, - धानी साड़ी पर रंग-रंग की मानो ये बुन्दियाँ हैं । और इसके पार एक ही फर्लांग पर उठकर आकाश में चढ़ा जा रहा है वह बर्फ का स्तूप जो धूप के स्पर्श से उज्ज्वल होकर झकमका रहा है, और जिस पर दूर से आँख ठहरना मुश्किल है । बादल अभी