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१५४ जैनेन्द्र की कहानियां [छठा भाग] नहीं है; इसलिए तुम लोग जाओ। उस समय और क्या बात हुई-कहना कठिन है।
उस समुदाय को सामने पाकर हम नीची आँख करके भोजनसमाप्ति की संलग्नता को अटूट बना रहने देने में दत्तचित्त हो रहे। ___मैं इससे पहिले कभी घोड़े पर नहीं बैठा था। मेरे मन में हो रहा था, कि अगर घोड़े पर बैठने की नौबत ही आ गई, तो अपनी तो बड़ी भद्द होगी। मन में यह खतरा था, कि सच, वह मौका सामने ही कहीं न श्रा जाय । कुछ यह भी था कि, घोड़े पर अभी तक बैठे नहीं हैं, जाने घोड़े की सवारी कैसी होती है । मैंने कहा, “महात्माजी, घोड़े कर लें, तो बड़ा अच्छा हो...कर भी लीजिये।"
अम्बुलकर बचपन में खूब घोड़े की सवारी कर चुका है, और उसे उन दिनों का आनन्द खूब याद है। उसने कहा, "हाँ महात्माजी, कर लीजिये।"
तीसरे मित्र के समर्थन करने की चेष्टा व्यर्थ गई; क्योंकि महात्माजी ने आँख ऊपर उठाकर घोड़ेवालों से पूछा, “एक घोड़े का क्या लोगे ?"
“एक रुपया....” बहुत से स्वरों ने यह कहा और सबने यह जतलाना प्रारम्भ कर दिया, कि यही बँधा रेट है। इसमें पूछताछ, कम-बढ़ हो ही नहीं सकती। __महात्माजी ने कह दिया, "तीन रुपये में चार घोड़े लाना हो, तो ले आओ।"
और वे तीन रुपये में चार घोड़े लाने की बात की असम्भवता और अनुपयुक्तता पर कुछ उद्गार प्रकट करने के बाद अन्त में लड़ते-झगड़ते विदा हुए। और कुछ ही मिनटों में चार श्रादमी चार कसे घोड़े लाकर सामने उपस्थित हो गये।