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जैनेन्द्र की कहानियाँ [छठा भाग]
:४: गुलमर्ग श्रीनगर से कोई पच्चीस मील है। बड़ी लुभावनी जगह है । सम्पन्न और जानकार पर्यटनार्थी कश्मीर आकर वहीं रहते हैं। जब श्रीनगर तपता है, तब आप बर्फ पा सकते हैं। १००० फीट ऊँचाई है । यह कदाचित् भारत का सबसे ऊँचा स्वास्थ्य-स्थल है।
हम लोग वहाँ पहुँचे।
उन्नत शैल-शृंगों से घिरा हुआ पहाड़ी गोद में गुलमर्ग ऐसा बसा है, मानो हरे दोने में सफेद फूल बिखरे हों । भूरे-भूरे, छितरे हुए कुछ मकान हैं, बीच-बीच में हरे लान हैं। पहाड़ के शीर्ष पर मानो एक अंजलि बनी है, उस अंजलि की हथेली में मनुष्य नामक कुछ प्राणी बसेरा डालकर खेल रहे हैं; और यह महाकाय हिमाचल, अपनी अंजलि को इसी प्रकार अपरिसीम आकाश के सम्मुख अर्घ्य से भरी लिये रहकर, मानो उसकी स्वीकृति की प्रतीक्षा में अनन्त काल से यों अवसन्न पड़ा है। ___ हम चार अकिंचन वहाँ पहुँचे । साधु थे; पर साधु नहीं थे। साधुत्व के विज्ञान और व्यवसाय से अत्यन्त अपरिचित थे। कुछ दक्ष साधु भी हमारे देखने में आये, जो चन्दन की पादुका और केवल पश्मीना और रेशम के वसन ही धारण कर सकते थे। मुखमण्डल उनका तेज और तेल से दीप्त रहता था और वह सदा भक्त-मण्डली से घिरे रहते थे; पर हम इस हुनर से कोरे थे । वस्त्र काषाय कर लेने की चिन्ता भी हमने नहीं की थी । न हमारा परिधान अत्यन्त उज्ज्वल था। ..
फिर भी, न जाने घोड़े वालों ने क्या समझ लिया, कि जब हम कहीं से कुछ पाकर एक देवालय के बरामदे में अपनी क्षुधा शान्त करने में लगे थे, कि उनके झुण्ड-के-मुण्ड हमारे सामने