________________
१५०
जैनेन्द्र की कहानियाँ [छठा भाग ]
ली जायगी, और मैंने कहा, "अच्छी बात है । रावलपिंडी तो पहुँचे। वहाँ जाकर फिर आगे की देखी जायगी ।"
·
यहाँ पर मुझे महात्माजी के मनसूबे भी मालूम हो गये थे । इतना ही नहीं था, कि वह कश्मीर पैदल जाएँगे । जाते-जाते वह पैसा भी छोड़ देंगे। फिर बे-पैसे चलना होगा। भीख में रोटी मिल गई, तो; नहीं मिल गई, तो । दो-एक महीने कश्मीर में रहकर, राह ठीक मिल जानी चाहिये, फिर पहाड़ ही पहाड़ भारत के उस कोने सिकिम दार्जीलिंग तक जाएँगे । और यों ही विचरेंगे । जन-समाज का सम्पर्क, जो जीवन-यापन की आवश्यकसी शर्त बन गई है, देखेंगे, कि वह क्यों न अनावश्यक सिद्ध हो जाय; और लोगों से दूर, हिमालय की गोद में, हरियाली से घिर कर, मधुकरी पालकर, सर्वथा निस्संगी और एकाकी रहकर क्यों न जीवन की सम्पूर्णता उपलब्ध की जा सके ?
-
इन मनसूबों से मैं डरने के सिवाय कुछ नहीं कर सकता था । मैं कैसे इस सब में महात्माजी का साथ दे सकूँगा ।
वह ग्रेजुएट सज्जन इस समय मेरी युक्ति का साधन बने । जब ऊपर की बात हुई, तब उन्होंने कहा, "आप जहाँ चाहें, जाइये । श्रीनगर तक तो हम साथ हैं, वहाँ से लौट आएँगे । हम तो कश्मीर देखने चल रहे हैं । " मैंने
कुछ कहा नहीं; लेकिन मैंने सोच लिया, इसी तरह की राह मेरे लिये भी निकल सकती है।
महात्माजी की ओर से छुट्टी थी ही कि जहाँ से जो चाहे, लौट श्रये । और लौटने की बात की आशंका हमीं दोनों तक थी । अम्बुलकर की निगाह में लौटना कुछ चीज ही नहीं है। जो कुछ है, आगे चलना है, लौटना भी एक तरह का आगे चलना ही है। 'अब होता नहीं, चलो, लौटो ।' - अम्बुलकर का लौटना ऐसा नहीं होता; इसलिए लौटकर भी वह आगे ही बढ़ता है।