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कश्मीर-प्रवास के दो अनुभव आते हैं, और दो फुहार हँसकर अभी भाग जाते हैं। अभी चुपके से कहीं से आकर सूरज की आँख मूंद लेते हैं, और अभी छन में छोड़ देते हैं, और सूरज फिर खिलखिला उठता है । बेहद बारीक धुनी हुई रुई के गाले से बादल उड़-उड़कर हमारे चारों
ओर फैले हैं, हमको छू-छूकर भाग जाते हैं, और हमें आर्द्र-सा कर जाते हैं । वह उधर गाय चर रही है, चुगकर मुंह ऊपर उठाती है, चारों ओर देखती है और सन्तोष को साँस लेती है-वह साँस नथनों से निकलकर भाप बना हुआ कैसा विलीन होता हुआ दीख पड़ता है। ____यहाँ आकर हठात् हम प्रकृति के इस विराट और मौन समारोह में तन्मय हो गये। चित्त की शंका हम पर से न जाने कब खिसक गई और भाग गई । चित्त खिलकर जाने किससे भर गया, कि और कुछ रहा ही नहीं, सब अपना-ही-अपना हो गया । ये घोड़े-वाले हमारे सम्बन्ध में किसी प्रकार के लेनदार है-चित्त में इस चेतना के लिये जैसे स्थान न रहा। वे उसके निकट अपने ही बन उठे। ___ अम्बुलकर ने कहा, "देखो, वह बादल के पिल्लू ! कैसे चिपटे जा रहे हैं !" ___ हम हँस पड़े। मैंने कहा, "पिल्लू नहीं, पिल्ले कहो । कैसे कुतिया के पिल्लों की तरह, गुलगुले, मानो कु-कु-हुँ-ॉ करते हुए, एक दूसरे में खोये जा रहे हैं !" ___ अम्बुलकर ने कहा, "नहीं जी, पिल्ले नहीं हैं, हमारे पिल्लू हैं। पिल्लू हैं, पिल्ले कैसे हो सकते हैं।" .
हमको मानना पड़ा कि बादल के बच्चों को पिल्लू ही कहते हैं। ये छोटे-छोटे, होते तो सच, बड़े मेमने से हैं। अभी अच्छी तरह दीख रहे हैं, कि छन में जाने कहाँ गायब!
हम शीघ्रता करके अपने-अपने घोड़ों पर से कूदकर किलकारी