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कश्मीर-प्रवास के दो अनुभव आकर धरना देकर खड़े हो गये। अनेक स्वर एक साथ कहने लगे, "बाबा खेलनमर्ग चलेगा ? हम ले जायगा,हमारा घोड़ा..." और सब-के-सब अपने-अपने घोड़े की सविशिष्ट पात्रता का बखान करने लगे। __गुलमर्ग से तीन मील और ऊपर जाने पर हिमाच्छादित गिरि-शृंग आता था। उसी का नाम खेलनमर्ग था। जो गुलमर्ग
आता, खेलनमर्ग देखता ही था । ऐसे किसी नये यात्री की बाट देखते यह लोग बैठे रहते थे, और उसको अपने घोड़े पर गुलमर्ग पहुँचा कर जो पाते थे, उस पर पेट पालते थे।
उन लोगों का अपने-अपने घोड़ों के बारे में उत्साह और विश्वास और प्रशंसा का प्रदर्शन उस समय हमें कुछ बहुत दिलचस्पी का विषय नहीं जान पड़ा। हल्की-सी उन्हें टाल देने की चेष्टा करके हम अपनी क्षुधा-तृप्ति में संलग्न रहे । हमारी उस चेष्टा से उन लोगों के धरने में कोई शिथिलता नहीं आई, वरन् कुछ कड़ाई ही आई; क्योंकि उन्हें हमारी चेष्टा में से इतना ही भावार्थ प्राप्त हुआ, कि हमें उनकी माँग के सम्बन्ध में कुछ वक्तव्य है। वे विश्वसनीयता और पात्रता के प्रमाण-स्वरूप अपनी-अपनी छाती ठोकते हुए और तरह-तरह के लोभनीय वाक्य कहते हुए सामने ही डटे रहे। __तब क्या हमें यह भूल चला, कि हम कौड़ी-विहीन होकर वहाँ भिक्षान्न प्राप्त कर रहे हैं और जीन-चढ़े कसे हुए तैयार घोड़ेसवारी का जो सानुरोध और सानेक स्वर आमवण हमें दिया जा रहा है वह हमारे किसी प्रकार के भी सरोकार की वस्तु नहीं होनी चाहिये ? तब क्या हमें यह कठिन जान पड़ा, कि इन दीन घोड़े वालों के सामने जाकर हम यह घोषणा करें, कि हम तुमसे भी दीन हैं और ताँबे के एक पैसे का सुभीता भी हमारे पास इस समय