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जैनेन्द्र की कहानियाँ [छठा भाग] सामान के साथ मिला, और उनके साथ ही रावलपिंडी के लिये सवार हो लिया। ___ उनके साथ मेरे मित्र अम्बुलकर थे, और एक ताजा ग्रेजुएट थे। या यह कहना ठीक होगा, कि उनकी ताज़गी निष्पन्न होने में ही आ रही थी। कालेज की डाल से टूटकर दुनिया के मोल-तोल के बाजार में जा पहुँचने में उन्हें कुछ कसर थी-रिजल्ट अभी नहीं आया था । अभी तक धरती से बहुत ऊँचे रहकर डाल में लगे-लगे ही उन्होंने सूरज की धूप और हवा की लोरियाँ खाई थीं; लेकिन जब शिक्षा के रस से भरकर पक उठेंगे, तब डाल उन्हें उस तरह अपने ऊपर धारण नहीं रख सकेगी, तब उन्हें गिरकर धरती पर ही आ रहना होगा। वह वहीं थे, जहाँ कि स्वप्न तोड़ना होता है, और सोचना होता है-'धरती पर अब
आये, अब आये।' परीक्षा के बाद की छुट्टियाँ बिताने, वह भी महात्माजी के साथ हो लिये थे।
दूसरे मित्र अद्भुत थे । हद के फक्कड़ । संकट के समय आगे, यों बेपता । बहुत अच्छा गाते थे। आवाज़ ऐसी थी, कि बड़ी प्यारी। धोखा कभी न देती थी । असहयोग के दिनों में फोर्थ-ईयर से पढ़ना छोड़ दिया था । अँगरेज़ी बेहिचक बोलते थे,
और हरदम नंगे पैरों पर जाँघिया पहने रहते थे। ऊपर कमीज़ हुई-हुई, न हुई न हुई । असहयोंग में पड़कर असहयोग के हो रहे । घर-बार जैसी भी कोई वस्तु होती है, इसका ध्यान ही न उठता । जो मिला उसी को पाकर खुश, न मिला, तो और भी खुश । गुस्से की बात पर कभी गुस्सा न होते थे, होते थे, ते बेबात यों-ही हो लेते थे । और फिर गुस्सा था कि राम-राम हिन्दी जो मराठी बनाकर बोलते थे, या मराठी को हिन्दी बनाकर कहना कठिन है; पर चीज़ वह अजीब होती थी। पर कह बैठिये कि हिन्दी पूरी मुहावरेदार नहीं हुई, तो समझिये, पूरी शाम