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कश्मीर-प्रवास के दो अनुभव त्मिकता उसकी प्रकृति थी। उस दिशा पर चल पड़ने पर वैसे प्रयोग की बात जीवन में पानी अनिवार्य ही थी। सन्' १८-१६ के गरमागरम काल में वह विकास राजनीति की पटरी पर आ रहा । परिस्थितियाँ कुछ ऐसी ही अनुकूल मिलती चली गई। यहाँ पर यह कहना नितान्त निर्धान्त न होगा, कि जो हम खिलौनों को चलाता-भगाता है, उस मदारी लाइन्स-मैन की कुछ चूक ही हुई कि गाड़ी यों गलत 'शंट' होकर अनुपयुक्त पटरी पर चल पड़ी। बात यह है, कि हमें सब-कुछ चूक लग सकता है, होता सब-कुछ ठीक है । यही कहने को जी चाहता है कि वास्तव में इस प्रकार राजनीति पर चल पड़ने से उस मौलिक विकास की स्वाभाविकता में और सरलता में व्यतिरेक और व्याघात नहीं पड़ा, वरन् वह तो अधिकाधिक स्पष्ट और सम्पन्न होता ही चला गया।
यह जेल, वह जेल, सन्' १८ के आरम्भ से लगाकर कई वर्षों तक बस यह हाल रहा । इस तरह जो बात मन में पहले भी उठउठ चुकी होगी, उसे अनुभव में उतार देखने का अवकाश अब कहीं सन्' २७ में आया। इससे पहिले कुछ और सोचने-करने की गुञ्जायश नहीं निकल सकी।
१२: मुझे तार मिला, कि अमुक दिन दिल्ली पहुंच रहा हूँ। रावलपिंडी जाना है। दो और साथ हैं । स्टेशन पर मिलो। ___ रावलपिंडी से कश्मीर रास्ता जाता है, यह मुझे तुरन्त याद आ गया । कश्मीर की भूख जी में थी ही । मन ने कुछ यह भी कहा, कि हो-न-हो महात्माजी कश्मीर ही जा रहे होंगे । जब तक महात्माजी यहाँ पहुँचे, तब तक रावलपिंडी जाने का कारण और काम मेरे साथ भी निकल आथा। स्टेशन पर मैं उन्हें मिला और