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ग्राम का पेड़
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प्रेमकृष्ण ने कहा, "फिर क्या हुआ प्रमोद ने कहा, "मुझे क्या मालूम, फिर क्या हुआ ।" प्रेम - "वह अब जीता है या नहीं और कृपा का क्या हाल
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है ?"
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प्रमोद - " मैं फिर उधर गया ही नहीं, न पता लगाया ।" प्रेम - " तो यह क्या बात हुई ? तुम समझते हो कि वह मर गये होंगे ?"
प्रो० विद्यारत्न ने कहा, "तो इससे क्या साबित हुआ ? इससे कुछ भी साबित नहीं होता ।"
प्रमोद ने कहा, "बात वेशक कुछ नहीं हुई। और मैं समझता हूँ, कृपा और जगतराम दोनों जीते होंगे।" फिर विद्यारत्न की ओर मुड़कर कहा, " साबित क्या हुआ ? क्या सब कुछ साबित ही होना चाहिये ? यह साबित का रोग आजकल फैशनेबल होता जा रहा है, साबित करो, साबित करो। सिर को सदा साबित करने और करवाने में लगाया जाता है, उस सिर बिचारे से इसलिए कुछ भी और अच्छा काम नहीं हो पाता । 'तर्क करो, साबित करो, नहीं तो मैं तर्क से सिद्ध करता हूँ, शास्त्रार्थ करके देख लो ' तुम बुद्धिमानों ने आज यह कैल मचा रक्खा है । मुझे भी क्यों लालच देकर उसमें फँसाना चाहते हो ? यही हाल रहा, तो एक दिन होगा कि लोग कहेंगे कि साबित करो, हम गधे नहीं हैं । साबित नहीं कर पाओगे, तो वे गधे बन जाएँगे ।... भई, मैं कब कहता हूँ, कुछ साबित हो गया..."
विद्या ने कहा, " तो कहो, तुमने बस एक कहानी कही है। यों ही बस लुक के लिए ।” प्रमोद ने कहा, "हाँ, मैंने हाँ, बस आनन्द के लिए ।"
एक कहानी कही है । और, और,
और फिर प्रमोद बिलकुल चुप होकर बैठ रहा ।