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जैनेन्द्र की कहानियाँ [छठा भाग ]
इस समय प्रेमकृष्ण ने बीच में पड़कर कहा, "सबसे पूछते हो, तुम्हीं क्यों नहीं बताते, तुम्हारी प्रेयसी कैसी है ?"
प्रमोद ने कहा, "मैं भी आप लोगों के साथ हूँ और शर्त लगा कर कह सकता हूँ कि वह इतनी सुन्दर है कि विधाता ने बनाई नहीं है, विधाता से बन गई है; और अब वह स्वयं बन जाने के बाद, उसे सम्भ्रम के साथ देखकर 'हाय-हाय !' कर रहे हैं । .. सबसे बढ़-चढ़ कर एक सुन्दरी को चुन लेने का दायित्व और अवसर हम लोगों पर आ पड़े, तो हम लोग कैसे फैसला करें । अन्त में एक ही चुनी जाय न ? शेष फिर कम सुन्दर या असुन्दर ठहरें । लेकिन उन-उनके प्रेमी हम लोग क्या इससे सन्तुष्ट हों ? क्या हम यह मान लें कि हमारी प्रेमिका आदर्श सुन्दर नहीं है ? अगर
जी से प्रेम करते होंगे, तो हम कभी यह नहीं मानेंगे। अब जो एक प्रकार से असुन्दर ठहरती है, उसको सबसे सुन्दर किसने बनाया ? आपकी आँखों में सबसे विशिष्ट सौन्दर्य उसको किसने प्रदान किया ? आपको किसने लाचार किया कि इस मामले में आप बिलकुल न हारें, तर्क की न सुनें, बहुसम्मति की और निर्णायकों की न मानें, और कहें कि सब से सुन्दर वही है । वह आपके भीतर का प्रेम है। तर्क, सौंदर्य को क्या जाने ? उसके लिए प्रेम चाहिये । वह नहीं, तो सौंदर्य मिट्टी । वह है, तो सब कुछ सुन्दर । प्रेम के लिए प्रेम चाहिये ।"
प्रेमकृष्ण - " तो हम सब - कैसी को, सब किसी को प्रेम कर सकते - कानी- लूली ? घोड़ा-बिल्ली ?"
प्रमोद - "नहीं भी कर सकते और कर भी सकते हैं । और क्या मालूम हम करते भी हैं ! मुझे एक बार एक गाँव जाने का
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मौका हुआ
बस, इसी का तो सब झगड़ा था । हम प्रसन्न होकर चुप बैठ गये । उसने कहना शुरू किया