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श्राम का पेड़
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"... एक मित्र ने भेजा था ! मैं इधर शहर से ऊब रहा था । कहीं खुली हवा में पहुँचना चाहता था । मैं तुरन्त चला
बुला
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गया ।
मित्र के थोड़ी ज़मीदारी थी। भाई बाहर जाकर कहीं ओवरसियरी करते थे और माहवार अपने वेतन से ड्योढ़े रुपये घर भेज दिया करते थे । मित्र खेती-बाड़ी की देख-भाल कर लेते थे, आराम और ईमानदारी से बसर करते थे । ठाले में साहित्य का प्रेम भी कुछ साथ लगा लिया था । चैन से दिन गुजर जाते थे ।”
एक रोज बोले, " पास गाँव में एक तेरहवीं की ज्योनार है । चलो, तुम भी चलो ।”
किसी के मरने पर तेरहवें दिन तेरहीं कर लोग खूब खानेपीने और खिलाने-पिलाने का आयोजन किया करते हैं। यह मुझे मालुम था; पर वैसी किसी ज्योनार में न्योता मिलने पर मैं क्या करूँगा, यह नहीं मालूम था! मैंने कहा, "मुर्दे की ज्योनार में जाना कुछ ऐसा ही-सा लगता है । यह भी कोई ऐसी बात है, जिसको ज्योनार का मौका बना लिया जाय ! मेरा तो जाने को जी नहीं होता ।"
लेकिन मित्र घसीटते हुए ले ही गये । यह सोच कर कि अकेला बैठा मैं गाँव में क्या करूँगा, मैं भी खिंच गया। सिद्धान्त मैं छाँट सकता हूँ; पर दुनिया में उनका बहुत बोझ पीठ पर रख कर मैं का झुका नहीं चलता । वे प्रोढ़ने-बिछाने के तो किसी काम आते नहीं, फिर उनका पुलिंदा क्यों व्यर्थ खींचते ले चलने को
साथ रक्खा जाय ।
लेकिन मैंने सोचा था, बाहर से नहीं, तो भीतर से असहयोग करूँगा । वहाँ चर्चा छेड़गा कि यह कैसी बुद्धि-शून्य प्रथा साथ