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प्राम का पेड़
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आप गिर जाय, तो चाहे सब लकड़ी इसकी वही लेले। और, राम की करनी दो रोज बाद वह पेड़ सचमुच धरती पर आ रहा । सोही उन्ने तेरही करी और अब बड़ा बैवल हो रहा है।"
मैंने पूछा, "उसके घर में कौन-कौन हैं ?"
उसने बताया, "कौन-कौन क्या, कुल दो ही तो जने हैं। महतारी मर ही गई, बहू मर ही गई । बेटी थी, सो अव पराये घर की होकर आनन्द में है । जगतराम है, और किरपा है। किरपा जवान, मेहनती लड़का है । बाप का सहाई होगा और बाप का कुल चलायगा । कुल का उजागर होगा-बड़ा अच्छा लड़का है । पर इस जगतराम की मत को एकदम क्या हो गया है कि किरपा के ब्याह की बात चल रही थी, सो पाँच-सात रोज़ से उस बारे में भी चुप हो बैठा है। लड़की वाले बहुत-बहुत कह रहे हैं; पर वह सुन सब लेता है, कहता अपनी एक नहीं । देखो, बहू आये तो घर, घर हो जाय । घर की आस तो बने । बिन घरनी कहीं घर होता है।...और दो रोटी का भी ठीक हो जाय। पर, जगतराम के मन जाने क्या समस्या है कि कोई बात उसके जी नहीं आती।"
पूछा, "क्यों, ऐसी क्या बात है ?" __ "...यही तो कि बात कुछ नहीं है । कहता है कि कुल तो अब उखड़ गया, अब नहीं जमेगा। विधि का लेख ऐसा ही है। माने बैठा है कि यह पेड़ उसके वंश का पेड़ था । वह गया कि वंश भी गया। आदमी की मत ऐसी जड़ हो जाय, तो फिर उससे क्या बस चले । सो ही हाल जगतराम का है । कुछ कहो, कैसी भी कहो, उसके मन नहीं जमती । वह समझता है, जैसे विधि के मन की बात यह जानता है। आप, बाबूजी, बने तो उसे समझाना। नहीं तो यों ही भुर-मुर के अपने आपको सुखा लेगा ।..."
यह जगतराम किस प्रकार अपने वंश की भवितव्यता के