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१३६ जैनेन्द्र की कहानियां [छठा भाग इतिहास का इस पेड़ के अस्तित्व के साथ ऐकात्म्य स्थापित करके मानो अपने भाग्य से निपटारा किये बैठा है, यह मैं किसी तरह भी स्पष्ट करके न समझ सका । यह धारणा क्योंकर उसके मन में फूटकर और फिर वहाँ गहरी जड़ें डालकर जीवन पर ऐसी छा फैली, कि फिर मानो शेष सब-कुछ उसकी छाया के तले आ रहा, उसके तले ही पला,-वह छाया हट जाय, तो और सब-कुछ भी मुर्भा ही जाय ! पिता-पुत्र-परम्परा से जगतराम के कुल ने इस आम को बोकर, उगाकर, सींचकर, अपने स्नेह के आदान-प्रदान द्वारा उसके जीवन के साथ अपने भावी इतिहास को मानो बाँध डाला था-वह आम का वृक्ष नहीं रह गया था, वह उनके वंश का वृक्ष हो गया था । उसमें उनके भाग्यविधायक वंश-देवता का आरोप हुआ था !
मैंने जानना चाहा, कि क्या वह, सच, इस पेड़ के मिटने को अपने वंश के लोप होने के सम्बन्ध में विधना का निर्देश समझता है ? ___मुझे बताया गया, कि वह ठीक यही समझता है। और इसलिए न निराश है, न हताश है। आशा का वहाँ घात हो, या वहाँ उसका अभाव अखरे, जहाँ वह हो अथवा उसकी सम्भावना हो । जहाँ आशा का ही अवकाश नहीं, वहाँ निराशा का भी दुःख नहीं : उस वृद्ध के शब्द ही मैं आपको सुनाऊँ। उसने कहा, "वह समझता है कि पेड़ गया, तो हमें भी चलना है। चलना तो, वह कहता है, सभी को है । यह हमारा भाग्य है कि चलने की खबर हमको पहले ही लग गई। सब पर तो परमात्मा ऐसी दया नहीं करते कि जना दें। अब इतना तो है कि मन को पहले से यहाँ के धन्धों से खींच लेंगे, और खुशी-खुशी यहाँ से चले जाएँगे। और दूसरों को भी नहीं फंसाएँगे। किरपा का ब्याह कर देते, तो एक बिचारी लड़की का अपजस हमारे सिर होता न । अब खबर