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माम का पेड़
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जाने कब चल देना पड़े। और जाने, बाबूजी, लम्बी उमर किरपा को लिखी है या नहीं।"...आदि ।
मैं जगतराम को देखता रहा । कह कुछ क्या सकता था। यह व्यक्ति मानो अपने को बिसार कर और बाहर के इसी-किसी को लेकर जीवन चला रहा है । उसकी अपनी अलग दुनिया, अपनी अलग बात कोई नहीं है । सबसे सब कहता है, और सबकी सब सुनता है । मानो अपने को समेट कर इस तरह मिटता-मिटता शून्य होकर सब में खो रहे इसकी तैयारी कर रहा है। ___ इतने में किरपा पान ले आया । पान हमने ले लिये और हम चलने को उद्यत दीख पड़े। उसने कहा, "चलिएगा? चलिये..."
मित्र ने कहा, "तकलीफ की ज़रूरत क्या है। रास्ता तो सीधा है, आप बैठिये । नाहक हैरान होने की जरूरत..."
हैरानी और तकलीफ के ख्याल की व्यर्थता को जगतराम ने जरा देर में प्रमाणित कर दिया । हम तीनों चल दिये।
सड़क लगभग सीधी ही जाती है। गाँव से बाहर होकर हम सड़क पर आये और उस पर हो लिये। चुप-चुप चले जा रहे थे। मैं जगतराम के बारे में सोच रहा था। सोच रहा था कि अब इन बेचारों को और कष्ट नहीं देना चाहिए। काफ़ी रास्ता आ लिये। मित्र, क्यों न इनसे लौट जाने को कह दें ? वह नहीं, तो मैं कहूँ ? 'अब कहूँगा, कहता ही हूँ अब' सोचता हुआ आगे बढ़ रहा था । मेरे दायीं तरफ़ सड़क के किनारे एकाध कदम पीछे जगतराम
आ रहे थे, मित्र बाई ओर मुझ से आगे थे । मित्र भी जरूर मन में जगतराम को बिदा कर देने की सोच रहे होंगे।
कि चलत-चलते सहसा जगतराम ने मेरा हाथ पकड़कर कहा, “जी, देखिये वहाँ-उस जगह था..."
मैं अनायास जगतराम की उठी हुई उँगली की सीध में शून्य दृष्टि से देखने लग गया। वहाँ क्या था, और उस अँगुलि