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________________ माम का पेड़ १४१ जाने कब चल देना पड़े। और जाने, बाबूजी, लम्बी उमर किरपा को लिखी है या नहीं।"...आदि । मैं जगतराम को देखता रहा । कह कुछ क्या सकता था। यह व्यक्ति मानो अपने को बिसार कर और बाहर के इसी-किसी को लेकर जीवन चला रहा है । उसकी अपनी अलग दुनिया, अपनी अलग बात कोई नहीं है । सबसे सब कहता है, और सबकी सब सुनता है । मानो अपने को समेट कर इस तरह मिटता-मिटता शून्य होकर सब में खो रहे इसकी तैयारी कर रहा है। ___ इतने में किरपा पान ले आया । पान हमने ले लिये और हम चलने को उद्यत दीख पड़े। उसने कहा, "चलिएगा? चलिये..." मित्र ने कहा, "तकलीफ की ज़रूरत क्या है। रास्ता तो सीधा है, आप बैठिये । नाहक हैरान होने की जरूरत..." हैरानी और तकलीफ के ख्याल की व्यर्थता को जगतराम ने जरा देर में प्रमाणित कर दिया । हम तीनों चल दिये। सड़क लगभग सीधी ही जाती है। गाँव से बाहर होकर हम सड़क पर आये और उस पर हो लिये। चुप-चुप चले जा रहे थे। मैं जगतराम के बारे में सोच रहा था। सोच रहा था कि अब इन बेचारों को और कष्ट नहीं देना चाहिए। काफ़ी रास्ता आ लिये। मित्र, क्यों न इनसे लौट जाने को कह दें ? वह नहीं, तो मैं कहूँ ? 'अब कहूँगा, कहता ही हूँ अब' सोचता हुआ आगे बढ़ रहा था । मेरे दायीं तरफ़ सड़क के किनारे एकाध कदम पीछे जगतराम आ रहे थे, मित्र बाई ओर मुझ से आगे थे । मित्र भी जरूर मन में जगतराम को बिदा कर देने की सोच रहे होंगे। कि चलत-चलते सहसा जगतराम ने मेरा हाथ पकड़कर कहा, “जी, देखिये वहाँ-उस जगह था..." मैं अनायास जगतराम की उठी हुई उँगली की सीध में शून्य दृष्टि से देखने लग गया। वहाँ क्या था, और उस अँगुलि
SR No.010359
Book TitleJainendra Kahani 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1953
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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