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________________ १४२ जैनेन्द्र की कहानियाँ [छठा भाग] निर्देश द्वारा सीधी तीर की तरह फेंकी जाती हुई 'वहाँ' नामक स्थान की सूचना को मैं इस लम्बे सपाट मैदान में किस विशिष्ट बिन्दु पर गिरती हुई देखू, यह कुछ भी न समझता हुश्रा, सीधा सामने देखता रहा । मित्र भी कुछ ऐसी ही हालत में होकर उधर को देखते रह गये। "...ठीक वहीं था, जी । वह जो छोटा-सा बबूल दीखता है न, उससे जरा बीस एक क़दम इधर, बस, वहीं था ।” और मेरा हाथ एकदम छोड़कर अपने दोनों हाथों की सहायता से मानो अपने अगले वाक्य को मूर्तिमान कर देते हुए कहा, "साब, ऐसा मीठा फल देता था कि...! और एक दाना यह-यह जंगी!..." किन्तु थोड़ी ही देर में उसे पता चल गया कि हम दिङ्मुढ होकर खड़े हैं और उसकी बातें सब हम पर खोई जा रही हैं । उसने कहा, "बाबूजी, चलिये, वहीं चलकर आपको दिखाऊँ। कुछ नहीं, यही कोई आधी फर्लाङ्ग जगह होगी । ज्यादे देर नही होगी।" यह कहकर वह आगे बढ़ लिया । हम भी हठात् पीछे-पीछे चले। खेतों की मेढ़ों पर जगतराम के पीछे चलत-चलते मैंने समझ लिया कि हो-न-हो, यह उस आम के पेड़ की ही बात है। ___ आधे फाग के नाम पर कोई आधा मील चलना पड़ा । खेत की मेड़ से उतरकर पास की बंजर-सी भूमि की ओर मुड़ रहे थे कि जगतराम ने कहा, "ऐं! सब सफाई कर दी! देखा बाबूजी ? आदमी हो, तो ऐसा हो। गिनने को अभी बारह रोज़ हुए हैं कि एक छिपटी यहाँ नहीं छोड़ी, कैसी हो ? मेरा आनेका मौका तो लगना था नहीं, इस बीच क्या पेड़ और क्या पेड़ का निशान, सब सफा ..." हम उस बंजर धरती में आगये। कुछ झरबेरी की झाड़ियाँ
SR No.010359
Book TitleJainendra Kahani 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1953
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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