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________________ प्राम का पेड़ १४३ फैली थीं और पास ही एक गहरा गड्ढा था, और उसके किनारे वृक्ष का कटा हुआ, जड़ का तना पड़ा था । नसें सूख कर उससे चिपट रही थीं, धड़ कट चुका था, हड्डियाँ सूख कर उभर रही थीं। मिट्टी में, धूप में, मेंह में, इस खुले बियाबान ऊसर में अपने पुराने लहलहाते दिनों के स्मरण से खिझाता हुआ, मानो उसका कंकाल पड़ा हो, मानो भाग्य ने अच्छी तरह चिचोड़ने के बाद अपने मुंह के पास का कोई कड़ा भाग अपनी दाढ़ में से निकाल कर डाल दिया हो। जगतराम को लगा होगा, जैसे उसके हृदय में से खोद कर चेतना के, धमनियों और शिराओं के केन्द्र-रूप मर्म को निकाल कर काट-कूट कर उसे किनारे डाल दिया है, और वहाँ गड्ढा छोड़ दिया है । मैंने देखा कि उस सूने स्थान में गड्ढे को देख-देख कर आँसू से कोई भारी चीज़ कहीं से उठ कर उसकी आँखों में आगई। कुछ क्षण भरी आँखों से वह देखता भर रहा गया, जैसे उसके भीतर की समस्त चेतना उमँग कर आँखों में आई और वहाँ स्तब्ध हो रही। फिर सँभल कर उसने कहा, "बाबूजी, लकड़ी की कोई बात नहीं । ले ही जाता; पर जरा ठैर जाता तो उसका कुछ हर्ज होता ? मुझे, सच, लकड़ी का क्या करना था। और ले गया है तो, भगवान् उसका भला करे । वह आदमी थोड़ा सबर और करता, तो मेरी आँखें मुंदने का दिन भी क्या दूर रह गया था। बस तभी तक का दुःख है । फिर, पेड़ कटे, चाहे जो हो।...बाबूजी, कुछ कहो, पेड़ मैंने ऐसा नहीं देखा । आम का पेड़ कोई ऐसी चीज़ है, जो कहीं मिले नहीं ? पर यह पेड़ तो तीन लोक में नहीं मिलता। यह-यह फल देता था। मौसम में चार पैसे आम की जोड़ी बिकती थी। जो जानते थे, वह जानते थे। दिल्ली में पूछते थे, 'यह सरली का आम है ?? सरली का हो, फिर मुँह माँगे दाम ले लो । सरली इसी पेड़ का नाम था, हमारे बाबा के
SR No.010359
Book TitleJainendra Kahani 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1953
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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