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जैनेन्द्र की कहानियाँ [छठा भाग] किरपा ने कहा, "आज उसने फिर हैरान करा होगा।" जगतराम ने पूछा, "किसने ?” किरपा ने कहा, "अजी, उसी ने हरिया ने।" जगतराम ने शान्त भाव से कह दिया,"मैं और काम से बारहा हूँ।" और तुरन्त ही हम लोगों की ओर मुड़ कर दीन-मुद्रा से कहा, "देर बहुत हो गई, काम-पै-काम आते गये। अब निबट सका हूँ। आप जाएँगे ही ?...एक रात रह जाते, तो झोंपड़ी...झोंपड़ी ही है, और जो है, आपकी है।..."
ज्योनार में परोसते वक्त उसे देखा था। पर अब उसके उस अद्भुत परिचय को पाने के बाद जो देखा, तो जान पड़ा पहले कुछ नहीं देखा था । अब तो जैसे चेहरा-मोहरा नहीं, उस चेहरेमोहरे के भीतर जो है, उसमें से भी कुछ-कुछ दीख रहा था ।माथे के किनारे आकर भौंहें भूल कर छा रही हैं, और नीचे उनके दो काली स्थिर आँखें हैं, जो चीजों को ऐसे देखती हैं, जैसे उनके धार-पार भी कुछ देख रही हैं। ___ "...आपने तकलीफ की और मैं कुछ कर नहीं सका। हम गाँव के ठहरे, मोटा-मोटा खाना ही जानते हैं, उसी को भगवान् का दिया मानकर, अपने खुश रहते हैं । आप तो...तो आप जाइयेगा ही न ? ठीक है, आपको यहाँ सुभीता क्या होगा ।... किरपा, जा, बाबूजी को दो पान तो ले आ ।..."
किरपा के जाने पर बताया कि किरपा बड़ा अच्छा लड़का है, ऐंठ तो, हाँ, थोड़ी है । थोड़ी हेकड़ी तो होनी भी चाहिए। मुझे बुरी तो लग जाती है; पर सोचो तो बुरी लगने की बात नहीं है। नेक हेकड़ी न हो, तो श्रादमी जिये कैसे । दब-दब के मर जाय । और बड़ा आज्ञाकारी है। और ब्याह की उसकी बात चली थी, सो ब्याह में क्या ? अकेला-दम आदमी को रहना अच्छा,