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माम का पेड़
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गया था। तब हमने जीमन देने की बात पर जिद्द नहीं की। लेकिन यह आम का पेड़ क्या था, माँ से भी बढ़ गया। ऐसी पेड़ की मुहब्बत तो हमने कहीं नहीं देखी।"
आम का पेड़ ! आम का पेड़ क्या ? मेरी समझ में नहीं आ सका। आप लोगों की समझ में भी नहीं आया होगा । आये कैसे ? हम मुहब्बत की जड़ में सुन्दरता देखना चाहते हैं। वहाँ लाकर रखने लगे कोई 'आम का पेड़', तो समझ में कैसे पाये। मैंने पूछा, "आम का पेड़ कैसा ?"
उन चौधरी ने कहा, "कैसा क्या, मामूली-सा एक पेड़ था। श्राम भी कभी-कभी देता था, और कम देता था। और मीठे भी कुछ ऐसे नहीं होते थे । सो आज तेरह रोज हुए गिर गया। उसका यह नौता था । हमने बहुत समझाया; पर वह माना ही नहीं। खर्च करके ही दम लिया । कोई ऐसा पैसे-वाला भी नहीं है। अब बोलो, जीमन नहीं करता, तो क्या जाता था। कोई उससे कहने जाता था कि जीवन कर, या क्यों नहीं किया ? पर अपने-अपने मन की बात है । मन में जो समा जाय, थोड़ा। इस मन का ही पागल होता है। और यह क्या कम पागलपन है । अब भी उसे उसी की धुन रहती है । पेड़ न हुआ, क्या हो गया ! बाबूजी, मैं सच कहता हूँ । पेड़ वह कौड़ी काम का नहीं रह गया था। फल अगले साल भी दे जाता, तो बहुत मानो। खोखला हुआ खड़ा था। अब न गिरता, दो दिन बाद गिरता। गिरना-गिरना तो हो ही रहा था । उस पर ऐसा करना बाबूजी, तो कोई समझ की बात है नहीं।..."
वह पुरुष इसी तरह बहुत देर तक कहे जाता, क्योंकि जान पड़ता है, वह इस जगतराम के प्रति गहरे भाव रखता था। नहीं तो जिसे जगतराम की अनसमझी और पागलपन कह रहा है, उसके सम्बन्ध में इतना चिंतित होने की उसे आवश्यकता न थी।