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जैनेन्द्र की कहानियां [छठा भाग] लगा रक्खी गई है कि मुर्दे का जीमन करो! जो जीते हैं, वे मुर्दे की याद मान कर ही क्यों खायें ? खाने-पीने के आयोजन के लिए अवसर हूँढने हैं; तो और पर्व-त्यौहार कम हैं, जो बेचारे मुर्दे के नाम पर ही हमारी भूख टूट कर पड़ती है ! घर शोक से भरा होगा; पर जीमन करने का ध्यान रखना होगा । नहीं रक्खोगे, तो बिरादरी रखवा लेगी। और फिर बिरादरी वाले पत्तल पर ऐसे टूट कर गिरेंगे कि... ___ खाना तो खैर मैंने खा लिया । उस समय तो कुछ छेड़ना ठीक न होता । टोटा अपना ही रहता। लेकिन, खाना खाकर जिन्हें जाना था, वे चले गये और जिन्हें बैठना था, वे जमकर बैठ गये,
और हुक्का घूमने लगा, तब मौका देखकर अपने मन के संकल्प की बोत मैंने धीमे से निकाल कर बाहर छोड़ दी । कहा, “यह तेरही के जीमन की प्रथा कुछ बहुत अच्छी तो नहीं मालूम होती। लोग क्यों फिजूल खर्च करने के लिये ऐसे कुसमय को मौका बनाते हैं ?"
उसी गाँव के एक प्रौढ़-वयस्क पुरुष ने कहा, "हमने तो जगतराम से बहुत कहा, ऐसा करने में कुछ फायदा नहीं है । जो हो गया; उस पर न तो बहुत सोच-फिकर करनी चाहिये, न आजकल इन कामों में खरच करने के दिन हैं । और बात भी कुछ ऐसी न थी। पर..." ___मैंने कहा, "लोगों को बिरादरी की फिकर रहती है। और फिकर न करें, तो जाय कहाँ। जन्म तो इसी में गुजारना है, फिर भी..." __उस वृद्धप्राय ने कहा, "नहीं, नहीं। हम सब लोगों ने तो बहुत कही; पर उसने एक नहीं मानी। हम भी समझते हैं, अब दिन ऐसे आ गये हैं कि पैसे पर हाथ भीचना होता है। अभी दो महीने की बात है, अपनी महतारी की तेरहीं के बखत यह मान