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आम का पेड़
रसीली और गरमागरम होती जाती हुई हमारी बातचीत में अभी तक उसने कुछ भाग नहीं लिया । अब वह बोला
'नहां, मैं आप लोगों से सहमत नहीं हूँ। प्रेम को सौन्दर्य की आवश्यकता नहीं । वह अपनी शक्ति से सौन्दर्य उत्पन्न कर सकता है । वह प्रेम क्या, जो बाहरी सौन्दर्य पर टिक रहे । प्रेम सत्य वस्तु है; अर्थात्-बिना किसी का सहारा लेकर वह स्वयं-सिद्ध स्थित रहने वाली वस्तु है । उसमें बल होगा, तो निराधार में से आधार उसे प्राप्त हो जायगा । नहीं तो, निर्बल होने पर, रति और कामदेव के सौन्दर्य का भी आधार उसे दिया जायगातो उस पर भी टिककर नहीं ठहर सकेगा। खिसक कर गिर जायगा, और फिर कुछ और आधार ढूँढेगा । वह प्रेम नहीं, प्रेम का आभास है, प्रेम का उपहास है । या यों कहें, प्रेम का आयास है । प्रेम वह होता है, जो भीतर से फूटकर बाहर छा जाता है और जहाँ बरसता है, उसकी असुन्दरता और उसके गुण-दोष मिटा देकर उसे कमनीय सर्व-सुन्दर बना छोड़ता है। जिसे जगाने और जगाये रखने के लिये बाहरी रूप दरकार हो, वह मानों सजग नहीं, वह सच्चा
नहीं।...."
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