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आम का पेड़
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हमने मन-चाहा पाया। इस प्रमोद में कुछ देर और यह भाप चढ़ती रही, तो जरूर कोई नई बात सुनायगा। जाने कहाँ-कहाँ की क्या-क्या बातें इसे आती हैं।
प्रेमकृष्ण ने कहा, "सुन्दरता की बिलकुल ज़रूरत नहीं, तो क्यों नहीं हम किसी बढ़सूरत को प्यार करने लगते ?"
प्रमोद को अवरोध नहीं मिलना चाहिये । मिला कि भाप घुटी । फिर फट पड़े, तो और मुश्किल । पर यह भला हो गया कि जो गर्मी उसमें चढ़ी, गुह्य अंतन्ति में एकरस बहती हुई रसधारा में से उठकर कहीं से कुछ शीतल वाष्प उसमें आ मिली। उसने प्रेमकृष्ण को देखा। क्षणेक देखकर कहा, "कौन कहता है, नहीं करते । तुम-हम, सब करते हैं।"
प्रेमकृष्ण ने कहा, "घर पर एक बुढ़िया आई थी। पगली-सी थी। बाल कटे थे। चिथड़ों से सजी थी। मुँह से लार टपक रही थी। आँखें चुन्दी-चुन्दी, कीच से सनी थीं। नाक से द्रव निकल कर अलग बह रहा था। नौकर से एक चुटकी चून दिलवा, मैने उसे दूर करवा दिया, कि फिर उसकी शकल दीखे नहीं, आवाज आये नहीं । नहीं क्यों मैंने उसे प्यार किया ?"
प्रमोद अब मानो पैना होगया । जब यह मनस्थिति होती है, तब मनुष्य के तर्क की तलवार पैनी होकर दुधारी हो जाती है, सबको काटती है और अपने को भी काटती है। बोला, "नहीं किया तो तुम्हारा पाप, उसका क्या दोष ? अपनी कमी के लिए उसे क्यों घृण्य सिद्ध करते हो ? तुम में घृणा न हो, तो कोई घृण्य कैसे हो जाय ? और तुममें घृणा है, यानी तुममें गड़बड़ है। और, अगर तुममें घृणा उत्पन्न हुई थी तो क्या तुमने उसे इसीलिए नहीं भगा दिया कि तुम उस घृणा को विषम हो उठने देना नहीं चाहते थे ! क्यों नहीं चाहते थे ? क्या इसका कारण यह नहीं हो सकता