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प्रातिथ्य
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निकल जाते है। हाँ, खाने का तो हमारे यहाँ ठीक है, बाक़ी
कुछ नहीं ।
इतवार का दिन था । मेरी छुट्टी थी। स्वामीजी ने कहा, "हम तो जाते हैं।"
"कहाँ जाइएगा ?" "जिंधर को चल दिया ।"
" अच्छा ठहरिए, ” मैंने कहा और मित्र की डेयरी जाने के आमन्त्रण की बात सोचनी धारम्भ कर दी। दिन अच्छा है, चलो यही सही और आज ही सही । अपने ऐसे बढ़िया मित्र को दिखाकर अपने मन की भी थोड़ी शाबाशी जीतने की इच्छा हुई । स्वामीजी की निगाह में मैं कुछ उठ ही जाऊँगा । बोला
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“स्वामीजी, एक जगह चलते हैं। एक डेयरी है, खुली जगह है, खेती भी है। मेरे एक पुराने मित्र का स्थान है ।"
"चलो ।”
मैं, मेरी स्त्री, छोटा बच्चा और स्वामीजी गाड़ी लेकर हम चारों चल दिये। दोपहर होते-होते वहाँ पहुँच गये। मित्र वहीं मिले ।
बड़ी लम्बी-चौड़ी जगह है । यह गायों के रहने की जगह है, हाँ दुही जाती हैं; यहाँ चरती हैं, वगैरह ।
जमीन इस तरह बाँटी गई है, इतने में चरागाह, इतने में नाज की खेती, इतने में साग-भाजी, थोड़े में फल-फूल -उधर ईख है - यह सब कुछ भी पानी का भी इन्तजाम किया, इतनी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा, अब बहुत ठीक हो गया है, खर्च बड़ा पड़ गया है - आदि-आदि व्यवसाय की बातें भी; दूध ऐसे ठीक रहता है. जर्म्स नहीं रहने चाहिए आदि-आदि ज्ञान की बातें अपने इस आदमी की और उस गौ की शिकायत और तारीफ़ - इस प्रकार मित्र ने फुटकर सूचनाओं और ज्ञान का