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कः पन्था
१२१.
- मैं मानिकचन्द से मिलकर खुश हुआ ।
और भाई भी मानिकचन्द की ही राह पर थे, और खुश थे। 'उन्हें अपने साथ कोई शिकायत नहीं थी। उन्हें अपने में कुछ गलन नहीं दिखाई देता था । मजे में रहते थे। चिन्ता-विचार का अधिक परिग्रह नहीं रखते थे। वे लोग सब समाज में मान्य, कर्मशील, तत्पर आदमी थे। अधिक-से-अधिक यही तो कहा जा सकता था कि वे सदाचारी नहीं हैं; किन्तु उपपत्नियाँ हैं, अथवा प्रेमिकाएँ हैं, या वेश्यागमन के सम्बन्ध में दृढ़प्रतिज्ञ नहीं हैं, तो इससे उनके जीवन में क्या अक्षमता आती थी ? वे सब-के-सब आत्मतुष्ट, स्वस्थ, प्रसन्न, मान्य, मिलनसार और मधुर-भाषी थे। ___ लालचन्द ने सबसे मुझे मिलाया । मैं मिलकर खुश हुआ।
इसके बाद एक दिन वह मेरे स्थान पर आया। उस समय किसी बड़ी दुविधा में मालूम होता था। वह मेरे साथ पुण्य और पाप की चर्चा चलाने आया था। वह जानना चाहता था कि क्या कृत्य पुण्य है, और क्या पाप ? क्या वह जो बातें कर रहा है, उससे सूक्ष्म जीवों की हिंसा नहीं होती ? क्या हिंसा पाप नहीं है ? वह इस सम्बन्ध में भी अविश्वस्त मालूम होता था कि यहाँ बैठा जो मुझ से बात कर रहा है, वह पुण्य ही है पाप नहीं। ____ मुझे ज्ञात हुआ कि इधर वह प्रतिदिन तीन-तीन घण्टे मन्दिर में बैठता है। वह अत्यन्त सतर्क रहता है कि अशुभ भाव उसके मन में न आने पावें। वह पहले से और भी पीला हो गया था, और अधिक हकला कर बोलता था। . __मैंने कहा, "तुम्हें धर्म के बारे में इतने अणुवीक्षण की भावश्यकता नहीं। धार्मिक जीवन दिव्य जीवन है। दिव्य जीवन अल्पप्राण जीवन नहीं है। महाप्राणता वास्तविक तत्त्व है। पापपुण्य के विवेक की राह से मनुष्य अपना पोषण करता है। उस