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१२२ जनेन्द्र की कहानियाँ [छठा भाग] राह के बीच में होने का प्रयोजन यह है कि वह इतना पुष्ट बने कि भय की उसे आवश्यकता न रहे; इसलिए कृत्य के अन्दर पाप-पुण्य नहीं है, वरन् मनुष्य के भीतर की भीरुता और अनधिकारिता के कारण उसके लिए कुछ पुण्य है और कुछ विगहणीय पाप। ___ मुझे ऐसा प्रतीत हुआ कि मैं लालचन्द की दृष्टि से निषिद्ध क्षेत्र पर जा रहा हूँ। मैंने कहा, "मेरे बच्चे, पाप-पुण्य की उलझन को
और मत उलझाओ। मनुष्य को इष्ट तो वह अवस्था है, जहाँ से पाप-पुण्य नीचे ही रह जाते हैं। लेकिन जीने को नीचे छोड़ने के लिए चढ़ना भी जीने से ही होगा। मैं तुमसे घूछता हूँ, क्या तुम मेरी बात मानोगे ?" ___ लालचन्द का तनिक भी समाधान होता प्रतीत न होता था; किन्तु मुझे ज्ञात हुआ कि वह मुझ से कुछ-न-कुछ की तो अपेक्षा रखता है। मैंने कहा, "लालचन्द, मैं तो यह देखता हूँ कि तुम अपने भाइयों के साथ उसी दूकान पर नहीं बैठ सकते, तो अलग व्यवसाय चलाओ। कुछ व्यवसाय तुम्हें अपने कन्धे पर उठाना ही चाहिए। आजीविका के लिए जो मनुष्य को कोई धन्धा करना जरूरी हो गया है, यह बात विधाता की ओर से निरी प्रयोजनहीन मत समझो। यह धन्धा चलाकर आदमी को पता चलता है कि दुनिया में जीवन अकेला नहीं है, अकेले का नहीं है, अकेले वह नहीं चलेगा; लेकिन कुछ आदमी हैं, जो बिना धन्धे के भी रहते हैं। उनमें से मैं भी तो एक हूँ। दूसरों की दी हुई भीख हमारा भोजन है। वही हमारी वृत्ति है; लेकिन भीख के भोजन पाने की वृत्ति के अधिकार तक श्रादमी जीवन में कुछ जीने पार करके ही पहुँचता है। प्रारम्भ में तो स्वभाव को पुष्ट करना होता है। अपने को स्वस्थ और आत्मप्रतिष्ठित करना होता है। विविध उपादानों से लड़कर अपने तई श्राहार जुटाना और जीवित रहना