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जैनेन्द्र की कहानियाँ [छठा भाग] है ? जैन-धर्म भी क्या ऐश्वर्य को इसी प्रकार अभिशप्त ठहराता है ?" ___ लालचन्द ने कहा, "जैन-धर्म में सर्वोपरि त्याग की महिमा है। सब कुछ तजना होगा । निर्ग्रन्थ हो जाना होगा । परिग्रह की ओर से दिगम्बर । किन्तु, वैभव दुष्कृति का लक्षण है. ऐसा वहाँ कथन नहीं है । प्रत्युत वह तो पुण्य का फल ही बताया गया है ।”
मैंने कहा, "तब तुम क्यों चिन्तित होते हो ?"
लालचन्द ने कहा, "बहुत इच्छा-पर्वक तो चिन्तित नहीं होता हूँ। क्या चिन्ता में कोई सुख है ? किन्तु बाइबिल की वह पंक्ति तो मेरे मन को लगती ही है । टाले से टलती नहीं। आपकी वक्तृता सुनकर मैंने सोच लिया, आप से मैं अपना प्रश्न पूछ लूंगा।" ___ हम लोग चले जा रहे थे। मेरा स्थान अब दूर नहीं था । मुझे लालचन्द का प्रश्न शास्त्रीय प्रश्न की भाँति न लगा। मुझे प्रतीत हुआ कि इस बात को जीवित समस्या बनाकर यह लालचन्द अपने लिए मानसिक क्लेश उपस्थित कर सकता है। ___मैंने कहा, "निसन्देह, बाइबिल की बात झूठ नहीं है; किन्तु ऐसा इसलिए नहीं कि जड़ धन-सम्पत्ति बहुत बड़ी चीज़ है, प्रत्युत इसलिए है कि मनुष्य अति क्षुद्र प्राणी है । धन-वैभव क्या इतनी बड़ी वस्तु है कि परम सत्य को और स्वर्ग के राज्य को अपनी प्रोट में ढक ले ? अवश्यमेव नहीं है; पर यह बात तो इसलिए कही गई है कि मनुष्य इतना दुर्बल और दुर्बल होने के कारण इतना अहंकारी है कि दुनिया के धन-वैभव से अपनी दृष्टि को जकड़ लेता है । समझता है, वह अपने को समर्थ बना रहा है। किन्तु इस प्रकार धन-मद का सहारा लेकर वह अपने को पामर ही बनाता है, अपने चारों ओर मान-मर्यादा की लकीरें खींचकर अपने को बन्द और संकीर्ण ही बनाता है । धन-सम्पत्ति में भी तो