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११० जैनेन्द्र की कहानियाँ [छठा भाग] भण्डार हमारे सामने पटक दिया। हमने कुछ सुना, कुछ नहीं सुना और बाकी बिखेर दिया। - हमने गो-सेवा के और कमाई के इस काम को देखकर प्रसनता जतलाई।
तब खाने की कुछ इच्छा प्रकट की। लेकिन यह भूल गये कि इस साल पाला कड़ाके का पड़ा था। खेती का सत्यानाश कर गया। चने के पौधे मरे पड़े हैं, छूट अभी न जाने कब आयेंगे; बाल गेहूँ की आई नहीं, मुलस गई है, इसी से मटर में भी दाने नहीं पड़ पाये है। आखिर एक जरा ठीक-सा चने का खेत दीख पड़ा है। किन्तु हैं ! ___ "उसमें कूल आ गये हैं, उसे नहीं । मैं दूसरा खेत बताता हूँ। वहाँ चने का साग ठीक मिलेगा।"
मेरी स्त्री ने चौंककर उस फूलदार चने के साग पर से हाथ उठा लिये । दूसरे खेत पर पहुँचे-कोंपल तोड़-तोड़कर खाकर कुछ तुष्टि प्राप्त की। मित्र इस बीच अपने इस उद्योग की अवस्था हमारे सामने फैलाते रहे
“खेती यों होती, पर यह पाला...?"
पता चला गाजर-मूली हैं। उन्हें ही मँगाओ भाई ! आखिर लौट कर आये और दुग्धशाला के आगे खुले मैदान में खाट डालकर बैठ गये। पेंसिल-सी मूलियाँ और अंगुल-भर की गाजरें धोकर तश्तरी में पेश की गई। हम चार जने एक तश्तरी-भर ये 'फल' कैसे खा जाएँगे ?-तश्तरी सामने पेश करके सभ्यता भी यह देखने खड़ी हो गई है। इससे कुछ तो भूख ही खाई और बड़े आहिस्ते से उठाकर तश्तरी में रखी इन फलों की एक-एक तराश खाई। खा चुके तब मित्र ने हुक्म दिया और तश्तरी नौकर उठा ले गया।
लेकिन बच्चा भूख नहीं निगल सका है। और मेरी स्त्री भी