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११२ जैनेन्द्र की कहानियाँ [छठा भाग] नहीं, यह भी कोई बात है ? मित्र पानी हो गये, बोले, "भई प्रसाद, आठ पौण्ड..."
आगे की बात नहीं कहूँगा। चुप कर देने वाली सफाई थी।
जी हुआ उस पौने दो सौ पौण्ड दूध में थूक दूं और कीमत देकर मुकाबले को खड़ा हो जाऊँ। लेकिन कहा, "जाने भी दो। तो क्या हुआ ? ऐसा क्या मैं कुछ नहीं समझता ?"
फौरन हम चले आये। बच्चा भूखा रहा, पर रास्ते में कोई बाजार थोड़े ही पड़ता है जो कुछ लेकर दे दिया जाता!
घर के सब लोग इकट्ठा हुए स्वामीजी ने हँसकर कहा, "देखे, आपके मित्र ? यही तो दुनिया है।"
मैं बचाव पर उद्यत हुआ, बोला, "वे...। लेकिन...." ___ पर बात कहने को मिली नहीं। स्वामीजी ने कहा, "तुमको भी ऐसा ही बनना चाहिए, समझे !"
मैं चुप।
तब से स्त्री को अच्छी बात कहने को मिल गई है। और मैं चुप हो जाता हूँ। पर मैं अब भी समझता हूँ-लाचारी एक चीज़ होती है, और नीयत पर हमला न होना चाहिए।
लेकिन स्वामीजी सब बातों पर हँस देते हैं।