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प्रातिथ्य "जरूर मिल लिया करूँगा। डेयरी का पता तो लगेगा ही।" "हाँ-हाँ । क्यों नहीं ? वाह !"
इस तरह घर के दरवाजे पर लौट जाने को मुझे स्वतन्त्र छोड़ वे चले गये। ___ पुराने अभिन्न मित्र को पाकर मैं बहुत प्रसन्न हुआ। घर में जाकर बात सुनाई-सबने मुझे भाग्यशाली स्वीकार किया, और अपनी-अपनी श्रद्धा-भेंट उनके दरवाजे पर चढ़ाने को सोचा।
उसके बाद दो-एक दफे देखा तो उनमें अन्तर पड़ गया था। बाकी बात वही थी-कपड़े बदल गये थे । यह नहीं कि मूंछ रखा ली हो । हाँ, अब खदर की टोपी, और आन्ध्र की मलमल-सी खहर की धोती और कुर्ता और चप्पन । बग्घी में बैठे होते थे । मैं पटरी पर चलता होता था-बग्घी सर से निकल जाती थी। कभी देख लेते तो मुस्करा पड़ते थे। तब वे अपनी डेयरी की जुस्तजू में थे, और नेताओं से मिलने-मिलाने का काम करते थे।
आखिर एक दिन दिन-दहाड़े ऐसा बीच-सड़क चल रहा था कि बग्घी को अपने आप रुकाना पड़ गया । वे उतर आये। बोले, “कहाँ जा रहे हैं, प्रसाद जी ?"
"दरियागंज।" "तो चलिए, मुझे भी उसी तरफ जाना है। बैठ चलिए।"
मैं निष्कण्टक बैठ गया। तब पता मिला, डेयरी के काम का आरम्भ हो गया है। कभी वहाँ पहुँचने का निमन्त्रण भी मिला। "आओ भाई, किसी दिन देख जाना । कुछ नहीं तो सैर ही सही। दूर तो है ही। यहाँ से कुल ३-४ मील जगह होगी।" मैंने कुछ हाँ-हाँ हूँ-हूँ कर ही दिया।
तय कितनी जमीन ली गई है, किस तरह उसे बोने के लिए