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कहानीकार
यह कह कर उन्होंने पास से एक अखबार खींच लिया और वहाँ उँगली से एक शब्द को मुझे दिखाते हुए कहा, "यह अक्षर क्या है ?"
मैं चुप रहा। __“यह 'अ' है न ? आप 'अ' कैसे लिखते हैं ? ऐसा ही तो जैसा कि यह छापे में छपा है ? ठीक ऐसा ही 'अ' मैं लिखता हूँ । 'क' भी वैसे ही लिखता हूँ, 'ख' भी वैसे ही लिखता हूँ। अक्षर और शब्द सब वैसे ही लिखता हूँ जैसे आप लिखते हैं। भाषा भी वही लिखता हूँ जो हम-आप सब बोलते हैं। 'ठीक-ठीक' तो यही बात है, इस में श्राप मेरी क्या मदद चाहते हैं ? यह तो आप नहीं चाहते न कि मैं आपको 'अ' लिखना बताऊँ या 'क' लिखना बताऊँ, या शब्द लिखना बताऊँ, या भाषा लिखना बताऊँ ? बताने की तो यही चीजें हैं । लेकिन, इनके सीखने से तो आप ऊपर उठ गये।... आप जानते हैं, मैं क्या पढ़ा हूँ ?" मैं उनकी तरफ देखता ही रह गया।
"एन्ट्रन्स भी पास नहीं किया है। यह भली ही बात हुई है। क्योंकि कोई बहाना ही नहीं है मेरे पास मैं अपने को कुछ समझू। न पढ़ा, न लिखा, न कुल, न शील, न सूरत, न शक्ल । इस कुछ न होने के लिए मैं परमात्मा का ऋणी हूँ। उसने मुझे साधारण बनाया, इससे बड़ी उसकी और क्या दया हो सकती थी ? मैं अपने को अति साधारण ही समझ सकता हूँ। दम्भ का मेरे पास क्या बहाना है, कहाँ गुंजाइश है ? इसलिए अगर मैं कहानी लिखता हूँ तो क्या यह नहीं हो सकता कि कोई दम्भ मेरे भीतर रुकावट बनने के लिए उपस्थित नहीं है, इसलिए मैं लिख जाता हूँ। आप कितना पढ़े हैं ?"
मैंने कहा कि मैं अँग्रेजी जानता हूँ, फ्रेंच भी जानता हूँ। छः महीने जर्मनी में रहा था, जर्मन भी थोड़ी बहुत जानता ही हूँ।