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जैनेन्द्र की कहानियां [छठा भाग] अगर यत्न करके भी नहीं लिख पाये हैं, तो कारण कोई तो है। वह क्या है ?"
मैंने पूछा, “क्या है ?"
बोले, “यह तो आपको स्वयं पाना होगा, क्या है। कुछ तो है ही । अहेतुक क्या बात होती है ? आप अपने भीतर से पहले जानिए कि चाहने पर भी क्यों कहानी नहीं लिखी गई ? और जब नहीं लिखी गई तो क्यों जरूरी तौर पर आपको चाहना पड़ता है कि लिखी जाय ? यही तो अनुमान होगा न, कि कुछ वस्तु आपको रोके हुए है । या तो उसे अभाव की परिभाषा में समझिए या उसे फिर कुछ नाम दीजिए । वह अभाव भर जाय या वह वस्तु हट जाय तो आपकी चाह पूरी होने में रुकावट नहीं रहेगी न । और जब ऐसा होगा तब चाह की जरूरत भी शनैः-शनैः लुप्त हो जायगी।" ___ मुझे उनकी बातें कुछ अँधेरी-सी मालूम हुई। मुझे वह सबकुछ पसन्द नहीं आया। उनके शब्दों में पकड़ने को कुछ है नहीं कि जिस पर विवाद उठाया जा सके और जिसको लाठी की भाँति टेक-टेक कर चलने से मार्ग शोधा जा सके। जान पड़ा कि कहीं इन महाशय का अहं-गर्व ही तो परामर्श की अज्ञेयता का रूप धर कर रौब जमाने नहीं सामने आ रहा है ? ___मैंने कहा, "मुझे ठीक-ठीक बताइए कि आप कहानी कैसे लिखते हैं।" ___ उन्होंने कहा, "ठीक-ठीक ?” और कहकर मुस्कराहट के साथ मुझे देखने लगे।
मैंने कहा, "हाँ, ठीक-ठीक । जिससे मैं कुछ समझू।"
बोले, "देखो भाई, अपने को पूरी तरह मैं जानता नहीं हूँ। इसलिए 'ठीक-ठीक' भी मैं नहीं जानता। फिर भी तुम बहुत ठीकठीक, चाहते हो तो मुझे पूछने दो-"