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जनेन्द्र की कहानियां [छठा भाग] अस्वास्थ्य के रूप में प्रकट होगा। भीतर और बाहर दो तो एकदम नहीं हो सकते न ?
मैंने देखा कि प्रियव्रत कुछ तेज़ हो आया । उसने कहा कि जो हो, अभिव्यक्ति तुम कहते हो होगी ही, तो वह होकर रहेगी। मुझे उसके बारे में क्या सोचना-विचारना है ? मैं तङ्ग होना नहीं चाहता। ___ स्पष्ट था कि इस चर्चा में उसे रस था। कुछ और बात उसे नहीं सुहाई । आस-पास से उसे नाता नहीं मालूम होता था और सूक्ष्म में उसका मन था।
मैंने कहा कि अगर हमारी भावना व्यक्त होगी, तो हमारे बावजूद उसका व्यक्त हो जाना इष्ट नहीं है। इसलिए कहना होगा कि अभिव्यक्ति होती ही नहीं है, उसे हम करते भी हैं। उसमें हमारा सहयोग नहीं हो सकता, बल्कि कतृत्व होना चाहिए।
उसने कहा कि क्या मतलब ? मैं उषा का चित्रपट आकाश पर देखकर प्रसन्न हो जाता हूँ तो मैं कहता हूँ कि उस प्रसन्नता में ही मुझे सब-कुछ प्राप्त है । यह क्यों आवश्यक है कि मैं उस सौन्दर्य पर कविता रचूँ ? नहीं, मेरे स्वयं प्रसन्न होने के आगे और सब अनावश्यक है । जो अभिव्यक्ति सामाजिक होने की ओर चलती है, मैं उसमें विश्वास नहीं करता। वह चीज़ मुझे गलत मालूम होती है।
मैं कुछ समझ नहीं सका कि इन तात्त्विक बातों में प्रियव्रत का आग्रह क्यों है। तत्त्व को तो जैसे रखो, वैसे रख जाता है। लेकिन मालूम होता था कि प्रियव्रत नहीं चाहता कि मैं चर्चा रोकूँ । मैंने कहा कि 'सोशल' शब्द का मान बँधा नहीं है। मैं अकेला नहीं हूँ। कोई अकेला नहीं है। हर-एक अनेकों के बीच
और साथ है । वह है तो समाज का होकर है। मनुष्य लाज़मी तौर पर सामाजिक है। समाज से कटकर मैं नहीं हो सकता । उससे