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प्रियव्रत जीना चाहता हूँ, पर-ऐं-नहीं मुझे मरना चाहिए । मैं पापी हूँ। विद्याधर, मुझे छोड़ो। मैं पापी हूँ। ___ पट्टी ठीक-ठाक कर, और उसे डाक्टर के सुपुर्द कर मैं चला
आया । दया को कहता आया कि सेवा के अतिरिक्त कुछ भी चिन्ता न रखे । ईश्वर बाक़ी देख लेगा।
ईश्वर बाकी अवश्य देख लेगा, इसमें तो सन्देह नहीं है। लेकिन फिर भी तो सन्देह होता ही है। पर ऐसे समय ईश्वर से इस ओर का कोई भी तो और शब्द धीरज बँधाने के काम में नहीं पाता!
यह कहने की आवश्यकता नहीं कि आगे दिनों की ही बात थी और प्रियव्रत मर गया। वह यह कहते-कहते मरा कि मैं मरना नहीं चाहता, दया ! मैं मरना नहीं चाहता । विद्याधर, देखो मझे बचा लो!