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प्रियव्रत प्रियव्रत को देख ही क्यों न लिया ? मेरे मन में प्रियव्रत के बारे में शङ्का थी। अगले दिन वह फिर आई । मुझे तब उनसे कहना हुआ कि वह जगह तो अब खाली नहीं रह गई है।
महिला ने कहा, "तो ?"
इस संक्षिप्त "तो ?' को सुनकर और उनकी निगाह को देखकर में अपने को अपराधी-सा लगने लगा। मैंने कहा, "जो कहिए करूँ।"
महिला ने कहा, "तो आप कुछ नहीं कर सकते ?" मैंने कहा, "बताइए क्या कर सकता हूँ ?" बोली, "कुछ जरूर कीजिए । उनकी हालत अच्छी नहीं है।"
मैं आग्रहपूर्वक उनके साथ प्रियव्रत को देखने गया । उनको खाँसी थी और हर रोज टेम्परेचर भी हो आता था। वह पीला था और दृष्टि उसकी भटकती मालूम होती थी। इलाज की कुछ ठीक व्यवस्था नहीं थी। परिस्थिति में चारों ओर अभाव-हीअभाव दीखता था। पत्नी अपना सब-कुछ गँवा चुकी थीं और उन्हें अब अपने पिता के पास से भी सहायता का ठिकाना नहीं रह गया था। तो भी धीरज बाँधकर वह चले ही जाती थीं।
खैर, मैंने डाक्टर की व्यवस्था कर दी। प्रियव्रत को ताकीद की कि वह मुझे पराया न गिने। और उसकी पत्नी को कहा कि चिन्ता की कोई बात नहीं है।
प्रियव्रत बहुत संकुचित मालूम होता था और खुलकर बात नहीं कर पाता था। उसकी आँखों में एक कृतज्ञता भरी रहती थी जिसका सामना करना मुझे कठिन होता था इसलिए जब तक वश चलता, मैं उसके पास नही जाता था। दया (उसकी पत्नी) आकर मुझे हाल-चाल दे जाया करती थीं।
एक दिन उन्होंने मुझे अचम्भे में डाल दिया । आकर कहा कि