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जैनेन्द्र की कहानियाँ [छठा भाग] विद्याधर ने कहा, "नहीं, तुम जाओगे नहीं। कुछ बीता है, तुम्हारे साथ । तुम जानते हो, उसमें मेरा दोष नहीं है। किन्तु रोष मुझ पर ही करते हो, इससे प्रकट है, चित्त तुम्हारा स्वस्थ नहीं।"
मैं बैठ गया। मुझे सुख नहीं था। और वह बेलाग स्वस्थचित्त बैठा है, इससे मुझे और दुख था । रोगी के सामने डाक्टर कुर्सी पर अविचल भाव से बैठकर हाल पूछकर और नब्ज देख कर, गम्भीर भाव से नुस्खा लिखकर, अलग करता है, तब क्या रोगी को कुछ अच्छा लगता है ? क्या वैसा अच्छा लगता है, जैसे जब माँ सिरहाने श्रा पूछती है, "बेटा, कैसा जी है ?" और उत्तर में दो बूँद आँसू गिराने को तैयार हो जाती है। जब सामने वह मिलती है, माँ पत्नी या कोई, जिसका जी अपनी हालत से छूकर रो उठे, तब अपने जी को ठंडक मिलती है। पर रोग का निदान तो डाक्टर के पास ही है, माँ के पास नहीं । रोगी डाक्टर से ठंडक न पाये, आरोग्य वहीं से पायगा।
मैंने पूछा, “विद्याधर, तुम जानते हो, प्रेम कम्बख्त क्या चीज़ है ?"
विद्याधर गम्भीर हो गया, जैसा कि वह कम होता है।
"प्रेम चीज़ नहीं है, प्रेम विभूति है । हम कम्बख्त हैं, जो उसे अपना मानते हैं। वह ईश्वर का ऐश्वर्य है। अव्याबाध व्यापक है। अपने-अपने बूते मुताबिक सबको मिलता है।" ___मैंने कहा, “विद्याधर, तुम नहीं जानते प्रेम क्या है। जिसे प्रेम पर ईश्वर याद आये, वह वास्तव प्रेम, मानव-प्रेम क्या जानता है ? विद्याधर, मुझे बताओ, क्या तुमने कभी प्रेम किया है ? तब मुझे तसल्ली होगी।"
विद्याधर ने कहा, "हम मानव जड़ हैं ! चैतन्य प्रेम है । उसी के प्रकाश में हम चैतन्य हैं। उसकी ऊष्मा हमारा जीवन है। उससे रिक्त हुए कि जीवनान्त हुआ। कौन प्रेम से वञ्चित है ?