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जैनेन्द्र की कहानियाँ [छठा भाग ]
होगा । तब रूस समानता की वास्तविक चाह में तुम्हारे पीछे
आयगा ।
मैंने मन में कहा, "मर कम्बख्त । रूस- वूस करता है, यह नहीं कि क्लर्को छोड़ कर कुछ बने ।”
यह सब-कुछ है। पर, जब जी हारता है, मैं उसी के पास पहुँचता हूँ । उस मिट्टी के माधो में फर्क नहीं आता । पर मेरे जी को ताकत मिलती है ।
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तो रात को जब मैं अकेले में फूटकर रो उठा, और रोने के बाद भी मनसीसे की तरह भारी ही रहा; और तनिक चैन की किरण चारों ओर के अँधेरे में कहीं से भी फूटती मुझे नहीं दीख सकी; और मुझे लगा, ऐसे समय भटकती मौत कहीं जा रही होती, तो उसे कस कर ऐसे चिपटा लेता कि फिर मुझे साथ लिये बिना जाने न पाती; तब सोचा, विद्याधर के पास जाऊँगा ।
इस तरह हल्के होकर मैंने नींद ली, और सबेरे निट कर ग्यारह बजे उसकी सभा के दफ्तर में पहुँचा ।
उसने कहा, "आओ । क्यों क्या हाल है ?"
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मैंने कहा, "तुम कहो, तुम्हें क्या मौत के दिन तक यहीं मरना है ? मेरी पूछते हो, यह नहीं कि कुछ अपनी फिकर करो ।”
विद्याधर तनिक हँसा । मुझे यही असह्य होता है । सब बात पर, जैस भेद से, वह हँसता क्यों है ? मैंने कहा, "तुम्हारे स्वामी जी कहाँ है आजकल ?”
उसने सहज भाव से कहा, "यहीं हैं। दौरे से आगये हैं । इस समय अपने बँगले पर ही होंगे ।"
मैंने कहा, "वह बँगले पर कोच पर होंगे। मैं पूछता हूँ, तुम दफ्तर में मेज पर क्यों हो ?"
उसने फिर हँसना चाहा । कहा, “मैं स्वामी जी नहीं हूँ, विद्या