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________________ ८२ जैनेन्द्र की कहानियाँ [छठा भाग ] होगा । तब रूस समानता की वास्तविक चाह में तुम्हारे पीछे आयगा । मैंने मन में कहा, "मर कम्बख्त । रूस- वूस करता है, यह नहीं कि क्लर्को छोड़ कर कुछ बने ।” यह सब-कुछ है। पर, जब जी हारता है, मैं उसी के पास पहुँचता हूँ । उस मिट्टी के माधो में फर्क नहीं आता । पर मेरे जी को ताकत मिलती है । * तो रात को जब मैं अकेले में फूटकर रो उठा, और रोने के बाद भी मनसीसे की तरह भारी ही रहा; और तनिक चैन की किरण चारों ओर के अँधेरे में कहीं से भी फूटती मुझे नहीं दीख सकी; और मुझे लगा, ऐसे समय भटकती मौत कहीं जा रही होती, तो उसे कस कर ऐसे चिपटा लेता कि फिर मुझे साथ लिये बिना जाने न पाती; तब सोचा, विद्याधर के पास जाऊँगा । इस तरह हल्के होकर मैंने नींद ली, और सबेरे निट कर ग्यारह बजे उसकी सभा के दफ्तर में पहुँचा । उसने कहा, "आओ । क्यों क्या हाल है ?" 1 मैंने कहा, "तुम कहो, तुम्हें क्या मौत के दिन तक यहीं मरना है ? मेरी पूछते हो, यह नहीं कि कुछ अपनी फिकर करो ।” विद्याधर तनिक हँसा । मुझे यही असह्य होता है । सब बात पर, जैस भेद से, वह हँसता क्यों है ? मैंने कहा, "तुम्हारे स्वामी जी कहाँ है आजकल ?” उसने सहज भाव से कहा, "यहीं हैं। दौरे से आगये हैं । इस समय अपने बँगले पर ही होंगे ।" मैंने कहा, "वह बँगले पर कोच पर होंगे। मैं पूछता हूँ, तुम दफ्तर में मेज पर क्यों हो ?" उसने फिर हँसना चाहा । कहा, “मैं स्वामी जी नहीं हूँ, विद्या
SR No.010359
Book TitleJainendra Kahani 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1953
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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