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मित्र विद्याधर
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धर हूँ: इससे अपनी जगह हूँ। लेकिन, तुम अपनी मन की बात कह डालो। मुझे लेकर अपने को यों मत पैनाश्र ।”
मैं – “स्वामी जी किस न्याय से वहाँ हैं ? और तुम किस तर्क से वहाँ से वंचित हो ? और मैं कहता हूँ, तुम क्यों अपने व्यवहार से इस अन्याय को स्वीकृत और पुष्ट करते हो ? बड़ी सभा है तुम्हारी । प्रचार करती है, उद्धार करती है, तुम्हें क्लर्क बनाती है, और स्वामी जी को बँगलाधीश बनाती है । क्यों ? इसीलिये कि तुम अधिक योग्य हो, और स्वामी जी धर्म से अधिक दूर हैं ? और, अब तुम कहोगे, सब ठीक है, और मैं गलत हूँ ।"
विद्याधर –“हाँ, सहज न रह सकना, गलती की पहचान है ।" मैं- " फिर वही सहज की बात करते हो अंधेर के सामने सहज रहा जाय ? कैसे रहा जाय ? वह दिल नहीं कुछ और है, जो सहज से कुछ और होना जानता नहीं । और तुम जानते क्या हो, आदमी पर क्या बीतती है, और क्या-क्या बीत सकती है । अकेले हो, यहाँ मेज पर बैठे रहते हो और सहज भाव से कह देते हो, सहज रहो ।..."
विद्याधर - "ठीक है, अब तुम शायद अपनी बात कहने के निकट आ रहे हो । कुछ लेकर आये हो, उसे कहकर हल्के हो जाते हो नहीं, मुझे लेकर गर्म होते हो ।"
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और वह उसी तरह मुस्करा कर रह गया । हँसना है, तो हँस क्यों नहीं पड़ता; मुस्करा कर क्यों रह जाता है ? और क्यों ऐसे देखता है ? वह हिलता क्यों नहीं, क्यों अचल रहता है ? मैं क्या उसका कुछ नहीं हूँ, और वह क्या मेरी विपत नहीं देखता, कि खुद हँसता है। मैंने कहा, "विद्याधर तुम आदमी नहीं हो । पशु होते, तो भी अच्छा होता, तुम पत्थर हो । और मुझे कुछ नहीं कहना - मैं जाता हूँ ।"