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जैनेन्द्र की कहानियाँ [ छठा भाग ]
मैंने अपना हाथ बढ़ाकर मेज पर पड़े उसके हाथ को पकड़ "विद्याधर !”
लिया । कहा,
और हिमाचल से ऊँचा यह महाशुभ्र - पत्थर विद्याधर, मानो मन्त्रबल से एकाएक गलकर बह पड़ने को हो उठा । मैं सहसा ही घबड़ा गया ।
मैंने देखा, वह चुप, निस्पन्द बैठा है ।
वह जाने कहाँ देख रहा है। मेरे चेहरे को आर-पार करके कहाँ दृष्टि गड़ी है कि निर्निमेष हो पड़ी है ।
कि,— उन फैली, टँकी, आँखों में एक खारी बूँद आई और टप मेज़ पर टपक पड़ी !
उस टप् की आवाज से वह एक साथ चौंका । मानो कहीं से टूटा, टूटकर गिरा । सब स्तब्ध था । उसने झपटकर आँखें पोंछ लीं । तब मानो उसने मुझे देखा । एक क्षीण मुस्कान की छाया उसके ओठों के किनारे आ रही । वे ओठ किश्चित् खुले
उसी समय द्वार पर साफेबन्द एक ग्रामीण पुरुष दीर्घाकार नकार की भाँति उपस्थित हो गया। बोला, "स्यामीजी, इहाँ ही रैते हैं ?”
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वह मुस्कान स्फुट होकर ओठों पर फैल गई। क्या वह हँसा ? उस नीरव हास्य पर मेरे जी में से हाय उठी, और मैंने उसे मसोस ली । उसने अँग्रेज़ी में कहा, "समय गया, वह श्रा गया थाचला गया, इसमें मेरा दोष कहाँ है ? देखो, क्या अब वह फिर आता है ? विनोद, तुम जाओ, खुश रहो । सब भगवान् करता है ।" मैंने कहा, "विद्याधर !”
वह ग्रामीण की ओर मुड़ गया, कहा, “स्वामीजी यहाँ नहीं रहते हैं | पर आश्रो भाई, तुम कहाँ से आते हो ?”
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