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जनेन्द्र की कहानियां [छठा भाग] जैसे बाहर भीतर सब एक है। रोक कहीं नहीं है। उस समय मालूम हुआ कि मैं अलग नहीं हूँ; सब में हूँ। मैं नहीं हूँ, क्योंकि शून्य है और मैं शून्य हूँ। मैं कुछ नहीं हूँ, यह अनुभूति ही मेरा सब-कुछ है।
कह नहीं सकता कि मुझे कब नींद आई थी। लेकिन यह याद कर सकता हूँ कि नींद उस दिन थकान की नहीं, आशीर्वाद की आयी थी। __आज सच है कि वह अनुभव पुराना पड़ गया है। उस पर धूल-पर-धूल चढ़ती जाती है। नित्य-प्रति के कामों में उसका आभास तक नहीं रहता है । अहंकार दिन की और रात की घड़ियों में हर दम सिर पर सवार रहता है। भीतर पसर कर इस या उस रूप में अभिमान आसन जमाये बैठा है, यह सच है। पर इस सब के पार होकर रह-रह कर उस इतने अधिक पुराने अनुभव पर मन जो जाया करता है सो क्या इसीलिये नहीं कि वह इस सब से कहीं ज्यादा सच है । कौन जानता है कि मानव-प्राणी के लिये एक अकेला सच अनुभव वही हो । शायद वही है । शायद नहीं, सचमुच वही है । जीव के पास उससे बड़ी सचाई कोई दूसरी नहीं है, कोई दूसरी हो नहीं सकती है।