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जैनेन्द्र की कहानियाँ [छठा भाग ]
इसके बाद फिर भोजन । तदनन्तर रात को हम अपने-अपने पलंग पर सोने के लिए आ गये ।
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हम पाँच थे । एक बड़े कमरे में हम पाँचों के पलंग बिछे हुए थे । हमारा सामान छुआ भी नहीं गया था और हर पलंग पर पूरा बिस्तर नया बिछा था ।
कुछ देर तो वह वृद्ध और हम लोग चर्चा करते रहे । फिर वह उठकर अपने बिस्तर पर चले गये । उस कमरे से लगी हुई एक छोटी कोठरी थी । उनकी खाट वहीं बिछी थी ।
आसपास सब सो रहे थे । मुझे नींद नहीं आई । जेल से बाहर का पहला दिन था । सब-कुछ नया लग रहा था । मैं छत की ओर देखता हुआ पड़ा था | बिजली की बहुत हल्की बत्ती जल रही थी । गृहपति के सोने की जगह मेरे पास ही थी और साफ़ दीखती थी । वह रजाई ओढ़े सो रहे थे। पैर उनके सिकुड़े थे और पलंग का आधा हिस्सा भी उससे नहीं भर रहा था । तकिए पर सिर टेके बालक की नाई वह पड़े थे ।
देखते-देखते सहसा एक विचार बिजली की तरह मुझे कौंध गया । उसमें शब्द नहीं थे और तट नहीं थे। किसी प्रकार की परिभाषा उसे नहीं दी जा सकती है। विचार नहीं, उसे भाव कहना चाहिए, बल्कि भाव भी उसे क्या कहें। बिजली का क्या
कार होता है ? उसकी शक्ल क्या है, जिसका नाम बिजली है ? ऐसे ही इस समय जो अनुभव जैसे शरीर के अणु - परमाणु को स्तब्ध करता हुआ मुझ में भीतर तक कौंध गया, नहीं जानता कि मैं उसको क्या कहूँ ? कैसे कहकर उसे बताऊँ ।
फर्लांग में फैली यह बड़ी हवेली और उसके चौक और उसके बगीचे और उससे लगी बड़ी दुकानें । वह सब कुछ इस समय क्या हो गया था कि उन सबका मालिक यहाँ बराबर में पलंग पर दो हाथ जितनी जगह घेर कर असहाय की भाँति पड़ा हुआ है ।