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वह अनुभव
जिसके पास सब-कुछ है, वही उस सब-कुछ को छोड़कर दो हाथ भर जगह ही बस अपना सका है। बिछी खाट पर गृहपति का अस्तित्व कितने संक्षेप रूप में समाप्त मालूम होता है । बस वह तो उतना ही है ! बाकी जो-कुछ है सो उसका होने के लिए नहीं है। बाकी सब-कुछ उससे पराया है । उसकी निजता इससे आगे नहीं।
इस अनुभव के नीचे नहीं मालूम कितनी देर मैं आँखें खोले पड़ा रहा। जाने मैं क्या हो रहा था ? बात कोई बड़ी न थी। लेकिन उस रोज एकाएक ऐसी अपूर्व ठोकर मन को लगी कि मैं श्रवसन्न हो गया। साथ ही मैं कृतार्थ भी हो गया। जाने कैसा बोझ मन पर से उठकर एक ही साथ शून्य में विलीन हो गया।
बार-बार स्मृति दिन में देखी हुई इस सज्जन पुरुष की समृद्धि और सम्पन्नता की ओर जाती थी। पुत्र है और पुत्रवधू हैं। दुहिता हैं, और दौहित्र हैं। नाती हैं, पोते हैं। धन-धान्य और प्रेम-विश्वास से सब-कुछ भरा-पूरा है और हरियाला है। पर उस सबके अधिपति को सोने के लिए दो हाथ जगह चाहिए, कुल दो हाथ ! यह भी तो नहीं कि पूरी खाट वह घेर सके। ___ उस समय मेरा मन हुआ कि उठकर बाहर जाऊँ और तारों को देखू और चाँद को देखू । ऊपर आसमान है जो बँदोए-सा तना है और जिसमें अनगिनत तारों के फूल टँके हैं और जो सुन्न है और शान्त है, उसके नीचे जाऊँ और उसकी शून्य शांति में अपनी उस भरी हुई साँस को छोड़ दूँ। वह जो अनन्त है, वही है और मैं यहाँ कुछ नहीं हूँ। जी हुआ कि यह प्रतीति अपने से इस अनन्त आकाश की शून्यता के कण-कण में से खींच कर और रोम-रोम के भीतर भर लूँ और इस प्रकार अपने को धन्य कहूँ। पर वह मैं नहीं कर सका और छत को देखता हुआ पड़ा रहा। लेकिन छत के शहतीर ऊपर से उड़ गये थे और ऐसा मालूम होता था कि ऊपर आसमान ही है। खड़ी दीवारें गिर गयी थीं कि