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जैनेन्द्र की कहानियाँ [छठा भाग] डोरीली, शराबी की-सी आँखों में ही जैसे कुछ ऐसी दीनता का रस था जो उठती-उठती ग्लानि को दबाकर उसे कुछ सकरुण बना देता था। मानो ऊपर जो फैला कर कामुक बेहयाई बिछाई हुई है उसके भीतर ढका हुआ लजीला और रसीला स्नेह चिररुद्ध, सुषुप्त, फिर भी मानो चिरातृप्त, सजग चुपचाप पड़ा है।
उसने कहा, "बाबूजी, यह बीड़ा ले लीजिए, तब मैं जानूँ आपने माफ कर दिया ।" __मैंने यही कहा कि उसे इधर सद्गृहस्थों के मकानों की ओर नहीं आना चाहिए और मुझे पान खाने की आदत नहीं है।
उसने भी कहा कि वह अब नहीं आवेगा सिर्फ मकान देखने के लिए आया था, जिससे ज़रूरत पड़ जाय तो फिर आ सके। कुछ दिनों में वह दिल्ली छोड़कर ही जाने वाला है ।
फिर मेरी उससे और भी बातें हुई।
कहाँ जायगा, यह मालूम नहीं है । जायगा किसी बड़े शहर में ही। यहाँ किराये की एक कोठरी में रहता था। दो महीने यहाँ रह चुका है। आवारा है। कोई उसके नहीं है। यहाँ नाम मालूम करके पूछता-पूछता चला आया था । मेरा नाम भी बतायाहरिशंकर एम. ए. । किसी खास मतलब से नहीं आया था, यों ही श्रा गया था। पान के काम में उसे नफा नहीं है। वह और काम नहीं कर सकता। बस, कर सकता ही नहीं है। जानता भी नहीं है, तबीयत भी नहीं है । कुछ रुपया है उसके पास, वह इस काम में खो जायगा तो खो जाने दो । खर्च वह इतना कम करता है कि बीस साल तक गुजारा करने में उसे दिक्कत नहीं होगी। ऐसा साफ वह इसलिए रहता है कि रहना पड़ता है । पानों से पान के खर्च के लायक पैसे निकल आयें तो यह बहुत है। वह और कुछ चाहता भी नहीं है।