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पानवाला
अब तक कुछ नहीं निकला। अब पाँच-सात बड़े शहर और रह गये हैं। वहाँ भी भाग्य आजमा लेगा।
इस ठोस घटनामय अस्थिपंजर के ऊपर निरर्थक नित्यप्रति के आपसी राग-प्रेम के व्यापारों से छाया सजीव कलेवर प्रस्तुत करके जो अतीत की वेदना-मूर्ति उसने मेरे सामने खड़ी कर दी थी, उसको आप तथ्य-प्रिय लोगों के सामने रखना मैं उचित नहीं समझता । उसने कहा, ____ "हाय, मैंने उसे कुछ सुख नहीं पहुँचाया। उस बिचारी के मन के लायक भी मैं अपने को न बना सका। उसे क्यों नहीं मैंने सबकुछ ला-लाकर दिया ? मैं उसे सन्तुष्ट नहीं रख सका, तभी तो उसे जाना पड़ा। अब मिलेगी तो उसे कुछ कमी न रहने दूंगा। हाय, बिचारी मेरे आसरे पड़कर आई, और मैं ऐसा निकम्मा कि उसे इतना दुःखी किया कि वह भाग गई। दुख दे-दे कर मैंने उसे निकाल दिया। अब ऐसा नहीं करूँगा। उसी की राजी में चलूँगा।"
उसने बात-बात में मुझसे दो-एक सवाल भी किये। पूछा
"अब मुझे देखकर वह नफरत तो नहीं करेगी ? अब मैं खूब अच्छी तरह सुर्मा लगा-लगू कर रहूँगा, क्यों बाबूजी ?"
मैंने समझ लिया कि शायद अपनी इसी शंका का समाधान और अपनी इसी योग्यता की मूक परीक्षा कर डालने के लिए वह झट पहुँच कर आती-जाती स्त्री की ओर भाव-भरी आँखों से देखकर मानो निर्णय के लिए याचना किया करता था।
प्रश्न के उत्तर के लिए बहुत जिद करने पर मैंने कह दिया था कि अब वह तो क्या, कोई स्त्री देखेगी तो उस पर लुब्ध हो जायगी।
उसने मुझे सर्वज्ञ जानकर यह भी पूछा था कि क्या उसकी स्त्री उसे मिल जायगी ?