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जनेन्द्र की कहानियाँ [छठा भाग] मैंने अपनी दृढ़ आशा प्रकट की थी। उसकी इच्छानुसार सच्चे हृदय से मैंने उसे आश्वासन दिया था कि मैं उसे ढूँढने में कुछ न उठा रक्तूंगा।
यह सब-कुछ वह अपने रेल के समय होने से पहले कर चुका और वह डिबिया मुझे सौंप कर चला गया ।
फिर मुझे उसका कुछ पता न चला । न स्त्री का ही कुछ हाल मिलने में आया।
दो साल बाद जो एक कार्ड मुझे मिला, वह मैंने रखा नहीं। पर वह मुझे याद है । नागपुर से वह आया था । लिखा था___"मेरा अन्त रोज अब पास आ गया है। दो-एक दिन अभी यहाँ धरती पर और रह जाऊँगा। वह आती बाबूजी, तो मैं परमात्मा की सौगन्ध खाकर कहता हूँ, उसे अब किसी बात की कमी नहीं होने देता। पर वह डरती होगी, इसी मारे नहीं आई । बाबूजी, मैं मिलता तो कहता, तू फिजूल डरती है। कोई उसे मिले तो यही कहे कि वह मूरख है, नाहक डरती है। और यहाँ छिद्दा पंसारी को जो कुछेक रुपये मेरे पास बच रहे थे वह दे दिये हैं। दो सौ से पाँच-सात ऊपर हैं। और एक अँगूठी बड़ी अच्छी मुझे दीख गई थी, वह मैंने ले ली थी। वह भी उसी के पास है। आप जरूरजरूर खत डाल कर मँगा लेना और लछमनिया मिले तो उसे दे देना । और कहना, तू फिजूल डरती थी। कहना, छिः, डरा करते हैं ? बाबूजी, इतना काम आप जरूर कर दोगे, इसका मुझे भरोसा
है..."
चिट्ठी पाते ही मैंने अपने एक मित्र को नागपुर तार दिया । उसे छिद्दा पन्सारी का पता लिख दिया और पानवाले को ढूंढ कर उस की यथायोग्य व्यवस्था कर देने को लिख दिया।